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05:17, 11 अगस्त 2007 अब तौ जूझया ही बरगै, मुडि चल्यां घर दूर । <BR/>
सिर साहिबा कौ सौंपता, सोंच न कीजै सूर ॥ 401 ॥ <BR/><BR/>
कबीर घोड़ा प्रेम का, चेतनि चाढ़ि असवार । <BR/>
ग्यान खड़ग गहि काल सिरि, भली मचाई मार ॥ 402 ॥ <BR/><BR/>
कबीर हरि सब कूँ भजै, हरि कूँ भजै न कोइ । <BR/>
जब लग आस सरीर की, तब लग दास न होइ ॥ 403 ॥ <BR/><BR/>
सिर साटें हरि सेवेये, छांड़ि जीव की बाणि । <BR/>
जे सिर दीया हरि मिलै, तब लगि हाणि न जाणि ॥ 404 ॥ <BR/><BR/>
जेते तारे रैणि के, तेतै बैरी मुझ । <BR/>
धड़ सूली सिर कंगुरै, तऊ न बिसारौ तुझ ॥ 405 ॥ <BR/><BR/>
आपा भेटियाँ हरि मिलै, हरि मेट् या सब जाइ । <BR/>
अकथ कहाणी प्रेम की, कह्या न कोउ पत्याइ ॥ 406 ॥ <BR/><BR/>
जीवन थैं मरिबो भलौ, जो मरि जानैं कोइ । <BR/>
मरनैं पहली जे मरै, जो कलि अजरावर होइ ॥ 407 ॥ <BR/><BR/>
कबीर मन मृतक भया, दुर्बल भया सरीर । <BR/>
तब पैंडे लागा हरि फिरै, कहत कबीर कबीर ॥ 408 ॥ <BR/><BR/>
रोड़ा है रहो बाट का, तजि पाषंड अभिमान । <BR/>
ऐसा जे जन है रहै, ताहि मिलै भगवान ॥ 409 ॥ <BR/><BR/>
कबीर चेरा संत का, दासनि का परदास । <BR/>
कबीर ऐसैं होइ रक्षा, ज्यूँ पाऊँ तलि घास ॥ 410 ॥ <BR/><BR/>
अबरन कों का बरनिये, भोपै लख्या न जाइ । <BR/>
अपना बाना वाहिया, कहि-कहि थाके भाइ ॥ 411 ॥ <BR/><BR/>
जिसहि न कोई विसहि तू, जिस तू तिस सब कोई । <BR/>
दरिगह तेरी सांइयाँ, जा मरूम कोइ होइ ॥ 412 ॥ <BR/><BR/>
साँई मेरा वाणियां, सहति करै व्यौपार । <BR/>
बिन डांडी बिन पालड़ै तौले सब संसार ॥ 413 ॥ <BR/><BR/>
झल बावै झल दाहिनै, झलहि माहि त्योहार । <BR/>
आगै-पीछै झलमाई, राखै सिरजनहार ॥ 414 ॥ <BR/><BR/>
एसी बाणी बोलिये, मन का आपा खोइ । <BR/>
औरन को सीतल करै, आपौ सीतल होइ ॥ 415 ॥ <BR/><BR/>
कबीर हरि कग नाव सूँ प्रीति रहै इकवार । <BR/>
तौ मुख तैं मोती झड़ै हीरे अन्त न पार ॥ 416 ॥ <BR/><BR/>
बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार । <BR/>
दुहुँ चूका रीता पड़ै वाकूँ वार न पार ॥ 417 ॥ <BR/><BR/>
कोई एक राखै सावधां, चेतनि पहरै जागि । <BR/>
बस्तर बासन सूँ खिसै, चोर न सकई लागि ॥ 418 ॥ <BR/><BR/>
बारी-बारी आपणीं, चले पियारे म्यंत । <BR/>
तेरी बारी रे जिया, नेड़ी आवै निंत ॥ 419 ॥ <BR/><BR/>
पदारथ पेलि करि, कंकर लीया हाथि । <BR/>
जोड़ी बिछटी हंस की, पड़या बगां के साथि ॥ 420 ॥ <BR/><BR/>
निंदक नियारे राखिये, आंगन कुटि छबाय । <BR/>
बिन पाणी बिन सबुना, निरमल करै सुभाय ॥ 421 ॥ <BR/><BR/>
गोत्यंद के गुण बहुत हैं, लिखै जु हिरदै मांहि । <BR/>
डरता पाणी जा पीऊं, मति वै धोये जाहि ॥ 422 ॥ <BR/><BR/>
जो ऊग्या सो आंथवै, फूल्या सो कुमिलाइ । <BR/>
जो चिणियां सो ढहि पड़ै, जो आया सो जाइ ॥ 423 ॥ <BR/><BR/>
सीतलता तब जाणियें, समिता रहै समाइ । <BR/>
पष छाँड़ै निरपष रहै, सबद न देष्या जाइ ॥ 424 ॥ <BR/><BR/>
खूंदन तौ धरती सहै, बाढ़ सहै बनराइ । <BR/>
कुसबद तौ हरिजन सहै, दूजै सह्या न जाइ ॥ 425 ॥ <BR/><BR/>
नीर पियावत क्या फिरै, सायर घर-घर बारि । <BR/>
जो त्रिषावन्त होइगा, सो पीवेगा झखमारि ॥ 426 ॥ <BR/><BR/>
कबीर सिरजन हार बिन, मेरा हित न कोइ । <BR/>
गुण औगुण बिहणै नहीं, स्वारथ बँधी लोइ ॥ 427 ॥ <BR/><BR/>
हीरा परा बजार में, रहा छार लपिटाइ । <BR/>
ब तक मूरख चलि गये पारखि लिया उठाइ ॥ 428 ॥ <BR/><BR/>
सुरति करौ मेरे साइयां, हम हैं भोजन माहिं । <BR/>
आपे ही बहि जाहिंगे, जौ नहिं पकरौ बाहिं ॥ 429 ॥ <BR/><BR/>
क्या मुख लै बिनती करौं, लाज आवत है मोहि । <BR/>
तुम देखत ओगुन करौं, कैसे भावों तोहि ॥ 430 ॥ <BR/><BR/>
सब काहू का लीजिये, साचां सबद निहार । <BR/>
पच्छपात ना कीजिये कहै कबीर विचार ॥ 431 ॥ <BR/><BR/>
॥ गुरु के विषय में दोहे ॥ <BR/><BR/>
गुरु सों ज्ञान जु लीजिये सीस दीजिए दान । <BR/>
बहुतक भोदूँ बहि गये, राखि जीव अभिमान ॥ 432 ॥ <BR/><BR/>
गुरु को कीजै दण्डव कोटि-कोटि परनाम । <BR/>
कीट न जाने भृगं को, गुरु करले आप समान ॥ 433 ॥ <BR/><BR/>
कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय । <BR/>
जनम-जनम का मोरचा, पल में डारे धोय ॥ 434 ॥ <BR/><BR/>
गुरु पारस को अन्तरो, जानत है सब सन्त । <BR/>
वह लोहा कंचन करे, ये करि लेय महन्त ॥ 435 ॥ <BR/><BR/>
गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय । <BR/>
कहैं कबीर सो सन्त हैं, आवागमन नशाय ॥ 436 ॥ <BR/><BR/>
जो गुरु बसै बनारसी, सीष समुन्दर तीर । <BR/>
एक पलक बिसरे नहीं, जो गुण होय शरीर ॥ 437 ॥ <BR/><BR/>
गुरु समान दाता नहीं, याचक सीष समान । <BR/>
तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्ही दान ॥ 438 ॥ <BR/><BR/>
गुरु कुम्हार सिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट । <BR/>
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट ॥ 439 ॥ <BR/><BR/>
गुरु को सिर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं । <BR/>
कहैं कबीर ता दास को, तीन लोक भय नहिं ॥ 440 ॥ <BR/><BR/>
लच्छ कोष जो गुरु बसै, दीजै सुरति पठाय । <BR/>
शब्द तुरी बसवार है, छिन आवै छिन जाय ॥ 441 ॥ <BR/><BR/>
गुरु मूरति गति चन्द्रमा, सेवक नैन चकोर । <BR/>
आठ पहर निरखता रहे, गुरु मूरति की ओर ॥ 442 ॥ <BR/><BR/>
गुरु सों प्रीति निबाहिये, जेहि तत निबटै सन्त । <BR/>
प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरु कन्त ॥ 443 ॥ <BR/><BR/>
गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न मोष । <BR/>
गुरु बिन लखै न सत्य को, गुरु बिन मिटे न दोष ॥ 444 ॥ <BR/><BR/>
गुरु मूरति आगे खड़ी, दुनिया भेद कछु नाहिं । <BR/>
उन्हीं कूँ परनाम करि, सकल तिमिर मिटि जाहिं ॥ 445 ॥ <BR/><BR/>
गुरु शरणागति छाड़ि के, करै भरौसा और । <BR/>
सुख सम्पति की कह चली, नहीं परक ये ठौर ॥ 446 ॥ <BR/><BR/>
सिष खांडा गुरु भसकला, चढ़ै शब्द खरसान । <BR/>
शब्द सहै सम्मुख रहै, निपजै शीष सुजान ॥ 447 ॥ <BR/><BR/>
ज्ञान समागम प्रेम सुख, दया भक्ति विश्वास । <BR/>
गुरु सेवा ते पाइये, सद्गुरु चरण निवास ॥ 448 ॥ <BR/><BR/>
अहं अग्नि निशि दिन जरै, गुरु सो चाहे मान । <BR/>
ताको जम न्योता दिया, होउ हमार मेहमान ॥ 449 ॥ <BR/><BR/>
जैसी प्रीति कुटुम्ब की, तैसी गुरु सों होय । <BR/>
कहैं कबीर ता दास का, पला न पकड़ै कोय ॥ 450 ॥ <BR/><BR/>
मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव । <BR/>
मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ॥ 451 ॥ <BR/><BR/>
पंडित पाढ़ि गुनि पचि मुये, गुरु बिना मिलै न ज्ञान । <BR/>
ज्ञान बिना नहिं मुक्ति है, सत्त शब्द परनाम ॥ 452 ॥ <BR/><BR/>
सोइ-सोइ नाच नचाइये, जेहि निबहे गुरु प्रेम । <BR/>
कहै कबीर गुरु प्रेम बिन, कतहुँ कुशल नहि क्षेम ॥ 453 ॥ <BR/><BR/>
कहैं कबीर जजि भरम को, नन्हा है कर पीव । <BR/>
तजि अहं गुरु चरण गहु, जमसों बाचै जीव ॥ 454 ॥ <BR/><BR/>
कोटिन चन्दा उगही, सूरज कोटि हज़ार । <BR/>
तीमिर तौ नाशै नहीं, बिन गुरु घोर अंधार ॥ 455 ॥ <BR/><BR/>
तबही गुरु प्रिय बैन कहि, शीष बढ़ी चित प्रीत । <BR/>
ते रहियें गुरु सनमुखाँ कबहूँ न दीजै पीठ ॥ 456 ॥ <BR/><BR/>
तन मन शीष निछावरै, दीजै सरबस प्रान । <BR/>
कहैं कबीर गुरु प्रेम बिन, कितहूँ कुशल नहिं क्षेम ॥ 457 ॥ <BR/><BR/>
जो गुरु पूरा होय तो, शीषहि लेय निबाहि । <BR/>
शीष भाव सुत्त जानिये, सुत ते श्रेष्ठ शिष आहि ॥ 458 ॥ <BR/><BR/>
भौ सागर की त्रास तेक, गुरु की पकड़ो बाँहि । <BR/>
गुरु बिन कौन उबारसी, भौ जल धारा माँहि ॥ 459 ॥ <BR/><BR/>
करै दूरि अज्ञानता, अंजन ज्ञान सुदेय । <BR/>
बलिहारी वे गुरुन की हंस उबारि जुलेय ॥ 460 ॥ <BR/><BR/>
सुनिये सन्तों साधु मिलि, कहहिं कबीर बुझाय । <BR/>
जेहि विधि गुरु सों प्रीति छै कीजै सोई उपाय ॥ 461 ॥ <BR/><BR/>
अबुध सुबुध सुत मातु पितु, सबहि करै प्रतिपाल । <BR/>
अपनी और निबाहिये, सिख सुत गहि निज चाल ॥ 462 ॥ <BR/><BR/>
लौ लागी विष भागिया, कालख डारी धोय । <BR/>
कहैं कबीर गुरु साबुन सों, कोई इक ऊजल होय ॥ 463 ॥ <BR/><BR/>
राजा की चोरी करे, रहै रंग की ओट । <BR/>
कहैं कबीर क्यों उबरै, काल कठिन की चोट ॥ 464 ॥ <BR/><BR/>
साबुन बिचारा क्या करे, गाँठे राखे मोय । <BR/>
जल सो अरसां नहिं, क्यों कर ऊजल होय ॥ 465 ॥ <BR/><BR/>
॥ सतगुरु के विषय मे दोहे ॥
सत्गुरु तो सतभाव है, जो अस भेद बताय । <BR/>
धन्य शीष धन भाग तिहि जो ऐसी सुधि पाय ॥ 466 ॥ <BR/><BR/>
सतगुरु शरण न आवहीं, फिर फिर होय अकाज । <BR/>
जीव खोय सब जायेंगे काल तिहूँ पुर राज ॥ 467 ॥ <BR/><BR/>
सतगुरु सम कोई नहीं सात दीप नौ खण्ड । <BR/>
तीन लोक न पाइये, अरु इक्कीस ब्रह्म्ण्ड ॥ 468 ॥ <BR/><BR/>
सतगुरु मिला जु जानिये, ज्ञान उजाला होय । <BR/>
भ्रम का भांड तोड़ि करि, रहै निराला होय ॥ 469 ॥ <BR/><BR/>
सतगुरु मिले जु सब मिले, न तो मिला न कोय । <BR/>
माता-पिता सुत बाँधवा ये तो घर घर होय ॥ 470 ॥ <BR/><BR/>
जेहि खोजत ब्रह्मा थके, सुर नर मुनि अरु देव । <BR/>
कहै कबीर सुन साधवा, करु सतगुरु की सेव ॥ 471 ॥ <BR/><BR/>
मनहिं दिया निज सब दिया, मन से संग शरीर । <BR/>
अब देवे को क्या रहा, यों कयि कहहिं कबीर ॥ 472 ॥ <BR/><BR/>
सतगुरु को माने नही, अपनी कहै बनाय । <BR/>
कहै कबीर क्या कीजिये, और मता मन जाय ॥ 473 ॥ <BR/><BR/>
जग में युक्ति अनूप है, साधु संग गुरु ज्ञान । <BR/>
तामें निपट अनूप है, सतगुरु लागा कान ॥ 474 ॥ <BR/><BR/>
कबीर समूझा कहत है, पानी थाह बताय । <BR/>
ताकूँ सतगुरु का करे, जो औघट डूबे जाय ॥ 475 ॥ <BR/><BR/>
बिन सतगुरु उपदेश, सुर नर मुनि नहिं निस्तरे । <BR/>
ब्रह्मा-विष्णु, महेश और सकल जिव को गिनै ॥ 476 ॥ <BR/><BR/>
केते पढ़ि गुनि पचि भुए, योग यज्ञ तप लाय । <BR/>
बिन सतगुरु पावै नहीं, कोटिन करे उपाय ॥ 477 ॥ <BR/><BR/>
डूबा औघट न तरै, मोहिं अंदेशा होय । <BR/>
लोभ नदी की धार में, कहा पड़ो नर सोइ ॥ 478 ॥ <BR/><BR/>
सतगुरु खोजो सन्त, जोव काज को चाहहु । <BR/>
मेटो भव को अंक, आवा गवन निवारहु ॥ 479 ॥ <BR/><BR/>
करहु छोड़ कुल लाज, जो सतगुरु उपदेश है । <BR/>
होये सब जिव काज, निश्चय करि परतीत करू ॥ 480 ॥ <BR/><BR/>
यह सतगुरु उपदेश है, जो मन माने परतीत । <BR/>
करम भरम सब त्यागि के, चलै सो भव जल जीत ॥ 481 ॥ <BR/><BR/>
जग सब सागर मोहिं, कहु कैसे बूड़त तेरे । <BR/>
गहु सतगुरु की बाहिं जो जल थल रक्षा करै ॥ 482 ॥ <BR/><BR/>
॥ गुरु पारख पर दोहे ॥ <BR/><BR/>
जानीता बूझा नहीं बूझि किया नहीं गौन । <BR/>
अन्धे को अन्धा मिला, राह बतावे कौन ॥ 483 ॥ <BR/><BR/>
जाका गुरु है आँधरा, चेला खरा निरन्ध । <BR/>
अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फन्द ॥ 484 ॥ <BR/><BR/>
गुरु लोभ शिष लालची, दोनों खेले दाँव । <BR/>
दोनों बूड़े बापुरे, चढ़ि पाथर की नाँव ॥ 485 ॥ <BR/><BR/>
आगे अंधा कूप में, दूजे लिया बुलाय । <BR/>
दोनों बूडछे बापुरे, निकसे कौन उपाय ॥ 486 ॥ <BR/><BR/>
गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं । <BR/>
भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि ॥ 487 ॥ <BR/><BR/>
पूरा सतगुरु न मिला, सुनी अधूरी सीख । <BR/>
स्वाँग यती का पहिनि के, घर घर माँगी भीख ॥ 488 ॥ <BR/><BR/>
कबीर गुरु है घाट का, हाँटू बैठा चेल । <BR/>
मूड़ मुड़ाया साँझ कूँ गुरु सबेरे ठेल ॥ 489 ॥ <BR/><BR/>
गुरु-गुरु में भेद है, गुरु-गुरु में भाव । <BR/>
सोइ गुरु नित बन्दिये, शब्द बतावे दाव ॥ 490 ॥ <BR/><BR/>
जो गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रान्ति न जिसका जाय । <BR/>
सो गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय ॥ 491 ॥ <BR/><BR/>
झूठे गुरु के पक्ष की, तजत न कीजै वार । <BR/>
द्वार न पावै शब्द का, भटके बारम्बार ॥ 492 ॥ <BR/><BR/>
सद्गुरु ऐसा कीजिये, लोभ मोह भ्रम नाहिं । <BR/>
दरिया सो न्यारा रहे, दीसे दरिया माहि ॥ 493 ॥ <BR/><BR/>
कबीर बेड़ा सार का, ऊपर लादा सार । <BR/>
पापी का पापी गुरु, यो बूढ़ा संसार ॥ 494 ॥ <BR/><BR/>
जो गुरु को तो गम नहीं, पाहन दिया बताय । <BR/>
शिष शोधे बिन सेइया, पार न पहुँचा जाए ॥ 495 ॥ <BR/><BR/>
सोचे गुरु के पक्ष में, मन को दे ठहराय । <BR/>
चंचल से निश्चल भया, नहिं आवै नहीं जाय ॥ 496 ॥ <BR/><BR/>
गु अँधियारी जानिये, रु कहिये परकाश । <BR/>
मिटि अज्ञाने ज्ञान दे, गुरु नाम है तास ॥ 497 ॥ <BR/><BR/>
गुरु नाम है गम्य का, शीष सीख ले सोय । <BR/>
बिनु पद बिनु मरजाद नर, गुरु शीष नहिं कोय ॥ 498 ॥ <BR/><BR/>
गुरुवा तो घर फिरे, दीक्षा हमारी लेह । <BR/>
कै बूड़ौ कै ऊबरो, टका परदानी देह ॥ 499 ॥ <BR/><BR/>
गुरुवा तो सस्ता भया, कौड़ी अर्थ पचास । <BR/>
अपने तन की सुधि नहीं, शिष्य करन की आस ॥ 500 ॥ <BR/><BR/>