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कुल खोये कुल ऊबरै, कुल राखे कुल जाय । <BR/>
राम निकुल कुल भेटिया, सब कुल गया बिलाय ॥ 801 ॥ <BR/><BR/>
दुनिया के धोखे मुआ, चला कुटुम की कानि । <BR/>
तब कुल की क्या लाज है, जब ले धरा मसानि ॥ 802 ॥ <BR/><BR/>
दुनिया सेती दोसती, मुआ, होत भजन में भंग । <BR/>
एका एकी राम सों, कै साधुन के संग ॥ 803 ॥ <BR/><BR/>
यह तन काँचा कुंभ है, यहीं लिया रहिवास । <BR/>
कबीरा नैन निहारिया, नाहिं जीवन की आस ॥ 804 ॥ <BR/><BR/>
यह तन काँचा कुंभ है, चोट चहूँ दिस खाय । <BR/>
एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय ॥ 805 ॥ <BR/><BR/>
जंगल ढेरी राख की, उपरि उपरि हरियाय । <BR/>
ते भी होते मानवी, करते रंग रलियाय ॥ 806 ॥ <BR/><BR/>
मलमल खासा पहिनते, खाते नागर पान । <BR/>
टेढ़ा होकर चलते, करते बहुत गुमान ॥ 807 ॥ <BR/><BR/>
महलन माही पौढ़ते, परिमल अंग लगाय । <BR/>
ते सपने दीसे नहीं, देखत गये बिलाय ॥ 808 ॥ <BR/><BR/>
ऊजल पीहने कापड़ा, पान-सुपारी खाय । <BR/>
कबीर गुरू की भक्ति बिन, बाँधा जमपुर जाय ॥ 809 ॥ <BR/><BR/>
कुल करनी के कारने, ढिग ही रहिगो राम । <BR/>
कुल काकी लाजि है, जब जमकी धूमधाम ॥ 810 ॥ <BR/><BR/>
कुल करनी के कारने, हंसा गया बिगोय । <BR/>
तब कुल काको लाजि है, चाकिर पाँव का होय ॥ 811 ॥ <BR/><BR/>
मैं मेरी तू जानि करै, मेरी मूल बिनास । <BR/>
मेरी पग का पैखड़ा, मेरी गल की फाँस ॥ 812 ॥ <BR/><BR/>
ज्यों कोरी रेजा बुनै, नीरा आवै छौर । <BR/>
ऐसा लेखा मीच का, दौरि सकै तो दौर ॥ 813 ॥ <BR/><BR/>
इत पर धर उत है धरा, बनिजन आये हाथ । <BR/>
करम करीना बेचि के, उठि करि चालो काट ॥ 814 ॥ <BR/><BR/>
जिसको रहना उतघरा, सो क्यों जोड़े मित्र । <BR/>
जैसे पर घर पाहुना, रहै उठाये चित्त ॥ 815 ॥ <BR/><BR/>
मेरा संगी कोई नहीं, सबै स्वारथी लोय । <BR/>
मन परतीत न ऊपजै, जिय विस्वाय न होय ॥ 816 ॥ <BR/><BR/>
मैं भौंरो तोहि बरजिया, बन बन बास न लेय । <BR/>
अटकेगा कहुँ बेलि में, तड़फि- तड़फि जिय देय ॥ 817 ॥ <BR/><BR/>
दीन गँवायो दूनि संग, दुनी न चली साथ । <BR/>
पाँच कुल्हाड़ी मारिया, मूरख अपने हाथ ॥ 818 ॥ <BR/><BR/>
तू मति जानै बावरे, मेरा है यह कोय । <BR/>
प्रान पिण्ड सो बँधि रहा, सो नहिं अपना होय ॥ 819 ॥ <BR/><BR/>
या मन गहि जो थिर रहै, गहरी धूनी गाड़ि । <BR/>
चलती बिरयाँ उठि चला, हस्ती घोड़ा छाड़ि ॥ 820 ॥ <BR/><BR/>
तन सराय मन पाहरू, मनसा उतरी आय । <BR/>
कोई काहू का है नहीं, देखा ठोंकि बजाय ॥ 821 ॥ <BR/><BR/>
डर करनी डर परम गुरु, डर पारस डर सार । <BR/>
डरत रहै सो ऊबरे, गाफिल खाई मार ॥ 822 ॥ <BR/><BR/>
भय से भक्ति करै सबै, भय से पूजा होय । <BR/>
भय पारस है जीव को, निरभय होय न कोय ॥ 823 ॥ <BR/><BR/>
भय बिन भाव न ऊपजै, भय बिन होय न प्रीति । <BR/>
जब हिरदै से भय गया, मिटी सकल रस रीति ॥ 824 ॥ <BR/><BR/>
काल चक्र चक्की चलै, बहुत दिवस औ रात । <BR/>
सुगन अगुन दोउ पाटला, तामें जीव पिसात ॥ 825 ॥ <BR/><BR/>
बारी-बारी आपने, चले पियारे मीत । <BR/>
तेरी बारी जीयरा, नियरे आवै नीत ॥ 826 ॥ <BR/><BR/>
एक दिन ऐसा होयगा, कोय काहु का नाहिं । <BR/>
घर की नारी को कहै, तन की नारी जाहिं ॥ 827 ॥ <BR/><BR/>
बैल गढ़न्ता नर, चूका सींग रू पूँछ । <BR/>
एकहिं गुरुँ के ज्ञान बिनु, धिक दाढ़ी धिक मूँछ ॥ 828 ॥ <BR/><BR/>
यह बिरियाँ तो फिर नहीं, मनमें देख विचार । <BR/>
आया लाभहिं कारनै, जनम जुवा मति हार ॥ 829 ॥ <BR/><BR/>
खलक मिला खाली हुआ, बहुत किया बकवाद । <BR/>
बाँझ हिलावै पालना, तामें कौन सवाद ॥ 830 ॥ <BR/><BR/>
चले गये सो ना मिले, किसको पूछूँ जात । <BR/>
मात-पिता-सुत बान्धवा, झूठा सब संघात ॥ 831 ॥ <BR/><BR/>
विषय वासना उरझिकर जनम गँवाय जाद । <BR/>
अब पछितावा क्या करे, निज करनी कर याद ॥ 832 ॥ <BR/><BR/>
हे मतिहीनी माछीरी! राखि न सकी शरीर । <BR/>
सो सरवर सेवा नहीं , जाल काल नहिं कीर ॥ 833 ॥ <BR/><BR/>
मछरी यह छोड़ी नहीं, धीमर तेरो काल । <BR/>
जिहि जिहि डाबर धर करो, तहँ तहँ मेले जाल ॥ 834 ॥ <BR/><BR/>
परदा रहती पदुमिनी, करती कुल की कान । <BR/>
घड़ी जु पहुँची काल की, छोड़ भई मैदान ॥ 835 ॥ <BR/><BR/>
जागो लोगों मत सुवो, ना करूँ नींद से प्यार । <BR/>
जैसा सपना रैन का, ऐसा यह संसार ॥ 836 ॥ <BR/><BR/>
क्या करिये क्या जोड़िये, तोड़े जीवन काज । <BR/>
छाड़ि छाड़ि सब जात है, देह गेह धन राज ॥ 837 ॥ <BR/><BR/>
जिन घर नौबत बाजती, होत छतीसों राग । <BR/>
सो घर भी खाली पड़े, बैठने लागे काग ॥ 838 ॥ <BR/><BR/>
कबीर काया पाहुनी, हंस बटाऊ माहिं । <BR/>
ना जानूं कब जायगा, मोहि भरोसा नाहिं ॥ 839 ॥ <BR/><BR/>
जो तू परा है फंद में निकसेगा कब अंध । <BR/>
माया मद तोकूँ चढ़ा, मत भूले मतिमंद ॥ 840 ॥ <BR/><BR/>
अहिरन की चोरी करै, करै सुई का दान । <BR/>
ऊँचा चढ़ि कर देखता, केतिक दुरि विमान ॥ 841 ॥ <BR/><BR/>
नर नारायन रूप है, तू मति समझे देह । <BR/>
जो समझै तो समझ ले, खलक पलक में खोह ॥ 842 ॥ <BR/><BR/>
मन मुवा माया मुई, संशय मुवा शरीर । <BR/>
अविनाशी जो न मरे, तो क्यों मरे कबीर ॥ 843 ॥ <BR/><BR/>
मरूँ- मरूँ सब कोइ कहै, मेरी मरै बलाय । <BR/>
मरना था तो मरि चुका, अब को मरने जाय ॥ 844 ॥ <BR/><BR/>
एक बून्द के कारने, रोता सब संसार । <BR/>
अनेक बून्द खाली गये, तिनका नहीं विचार ॥ 845 ॥ <BR/><BR/>
समुझाये समुझे नहीं, धरे बहुत अभिमान । <BR/>
गुरु का शब्द उछेद है, कहत सकल हम जान ॥ 846 ॥ <BR/><BR/>
राज पाट धन पायके, क्यों करता अभिमान । <BR/>
पड़ोसी की जो दशा, भई सो अपनी जान ॥ 847 ॥ <BR/><BR/>
मूरख शब्द न मानई, धर्म न सुनै विचार । <BR/>
सत्य शब्द नहिं खोजई, जावै जम के द्वार ॥ 848 ॥ <BR/><BR/>
चेत सवेरे बाचरे, फिर पाछे पछिताय । <BR/>
तोको जाना दूर है, कहैं कबीर बुझाय ॥ 849 ॥ <BR/><BR/>
क्यों खोवे नरतन वृथा, परि विषयन के साथ । <BR/>
पाँच कुल्हाड़ी मारही, मूरख अपने हाथ ॥ 850 ॥ <BR/><BR/>
आँखि न देखे बावरा, शब्द सुनै नहिं कान । <BR/>
सिर के केस उज्ज्वल भये, अबहु निपट अजान ॥ 851 ॥ <BR/><BR/>
ज्ञानी होय सो मानही, बूझै शब्द हमार । <BR/>
कहैं कबीर सो बाँचि है, और सकल जमधार ॥ 852 ॥ <BR/><BR/>
॥ काल के विषय मे दोहे ॥ <BR/><BR/>
जोबन मिकदारी तजी, चली निशान बजाय । <BR/>
सिर पर सेत सिरायचा दिया बुढ़ापै आय ॥ 853 ॥ <BR/><BR/>
कबीर टुक-टुक चोंगता, पल-पल गयी बिहाय । <BR/>
जिव जंजाले पड़ि रहा, दियरा दममा आय ॥ 854 ॥ <BR/><BR/>
झूठे सुख को सुख कहै, मानत है मन मोद । <BR/>
जगत् चबैना काल का, कछु मूठी कछु गोद ॥ 855 ॥ <BR/><BR/>
काल जीव को ग्रासई, बहुत कह्यो समुझाय । <BR/>
कहैं कबीर में क्या करूँ, कोई नहीं पतियाय ॥ 856 ॥ <BR/><BR/>
निश्चय काल गरासही, बहुत कहा समुझाय । <BR/>
कहैं कबीर मैं का कहूँ, देखत न पतियाय ॥ 857 ॥ <BR/><BR/>
जो उगै तो आथवै, फूलै सो कुम्हिलाय । <BR/>
जो चुने सो ढ़हि पड़ै, जनमें सो मरि जाय ॥ 858 ॥ <BR/><BR/>
कुशल-कुशल जो पूछता, जग में रहा न कोय । <BR/>
जरा मुई न भय मुवा, कुशल कहाँ ते होय ॥ 859 ॥ <BR/><BR/>
जरा श्वान जोबन ससा, काल अहेरी नित्त । <BR/>
दो बैरी बिच झोंपड़ा कुशल कहाँ सो मित्र ॥ 860 ॥ <BR/><BR/>
बिरिया बीती बल घटा, केश पलटि भये और । <BR/>
बिगरा काज सँभारि ले, करि छूटने की ठौर ॥ 861 ॥ <BR/><BR/>
यह जीव आया दूर ते, जाना है बहु दूर । <BR/>
बिच के बासे बसि गया, काल रहा सिर पूर ॥ 862 ॥ <BR/><BR/>
कबीर गाफिल क्यों फिरै क्या सोता घनघोर । <BR/>
तेरे सिराने जम खड़ा, ज्यूँ अँधियारे चोर ॥ 863 ॥ <BR/><BR/>
कबीर पगरा दूर है, बीच पड़ी है रात । <BR/>
न जानों क्या होयेगा, ऊगन्ता परभात ॥ 864 ॥ <BR/><BR/>
कबीर मन्दिर आपने, नित उठि करता आल । <BR/>
मरहट देखी डरपता, चौडढ़े दीया डाल ॥ 865 ॥ <BR/><BR/>
धरती करते एक पग, समुंद्र करते फाल । <BR/>
हाथों परबत लौलते, ते भी खाये काल ॥ 866 ॥ <BR/><BR/>
आस पास जोधा खड़े, सबै बजावै गाल । <BR/>
मंझ महल से ले चला, ऐसा परबल काल ॥ 867 ॥ <BR/><BR/>
चहुँ दिसि पाका कोट था, मन्दिर नगर मझार । <BR/>
खिरकी खिरकी पाहरू, गज बन्दा दरबार ॥ <BR/><BR/>
चहुँ दिसि ठाढ़े सूरमा, हाथ लिये हाथियार । <BR/>
सबही यह तन देखता, काल ले गया मात ॥ 868 ॥ <BR/><BR/>
हम जाने थे खायेंगे, बहुत जिमि बहु माल । <BR/>
ज्यों का त्यों ही रहि गया, पकरि ले गया काल ॥ 869 ॥ <BR/><BR/>
काची काया मन अथिर, थिर थिर कर्म करन्त । <BR/>
ज्यों-ज्यों नर निधड़क फिरै, त्यों-त्यों काल हसन्त ॥ 870 ॥ <BR/><BR/>
हाथी परबत फाड़ते, समुन्दर छूट भराय । <BR/>
ते मुनिवर धरती गले, का कोई गरब कराय ॥ 871 ॥ <BR/><BR/>
संसै काल शरीर में, विषम काल है दूर । <BR/>
जाको कोई जाने नहीं, जारि करै सब धूर ॥ 872 ॥ <BR/><BR/>
बालपना भोले गया, और जुवा महमंत । <BR/>
वृद्धपने आलस गयो, चला जरन्ते अन्त ॥ 873 ॥ <BR/><BR/>
बेटा जाये क्या हुआ, कहा बजावै थाल । <BR/>
आवन-जावन होय रहा, ज्यों कीड़ी का नाल ॥ 874 ॥ <BR/><BR/>
ताजी छूटा शहर ते, कसबे पड़ी पुकार । <BR/>
दरवाजा जड़ा ही रहा, निकस गया असवार ॥ 875 ॥ <BR/><BR/>
खुलि खेलो संसार में, बाँधि न सक्कै कोय । <BR/>
घाट जगाती क्या करै, सिर पर पोट न होय ॥ 876 ॥ <BR/><BR/>
घाट जगाती धर्मराय, गुरुमुख ले पहिचान । <BR/>
छाप बिना गुरु नाम के, साकट रहा निदान ॥ 877 ॥ <BR/><BR/>
संसै काल शरीर में, जारि करै सब धूरि । <BR/>
काल से बांचे दास जन जिन पै द्दाल हुजूर ॥ 878 ॥ <BR/><BR/>
ऐसे साँच न मानई, तिलकी देखो जाय । <BR/>
जारि बारि कोयला करे, जमते देखा सोय ॥ 879 ॥ <BR/><BR/>
जारि बारि मिस्सी करे, मिस्सी करि है छार । <BR/>
कहैं कबीर कोइला करै, फिर दै दै औतार ॥ 880 ॥ <BR/><BR/>
काल पाय जब ऊपजो, काल पाय सब जाय । <BR/>
काल पाय सबि बिनिश है, काल काल कहँ खाय ॥ 881 ॥ <BR/><BR/>
पात झरन्ता देखि के, हँसती कूपलियाँ । <BR/>
हम चाले तु मचालिहौं, धीरी बापलियाँ ॥ 882 ॥ <BR/><BR/>
फागुन आवत देखि के, मन झूरे बनराय । <BR/>
जिन डाली हम केलि, सो ही ब्योरे जाय ॥ 883 ॥ <BR/><BR/>
मूस्या डरपैं काल सों, कठिन काल को जोर । <BR/>
स्वर्ग भूमि पाताल में जहाँ जावँ तहँ गोर ॥ 884 ॥ <BR/><BR/>
सब जग डरपै काल सों, ब्रह्मा, विष्णु महेश । <BR/>
सुर नर मुनि औ लोक सब, सात रसातल सेस ॥ 885॥
कबीरा पगरा दूरि है, आय पहुँची साँझ । <BR/>
जन-जन को मन राखता, वेश्या रहि गयी बाँझ ॥ 886 ॥ <BR/><BR/>
जाय झरोखे सोवता, फूलन सेज बिछाय । <BR/>
सो अब कहँ दीसै नहीं, छिन में गयो बोलाय ॥ 887 ॥ <BR/><BR/>
काल फिरे सिर ऊपरै, हाथों धरी कमान । <BR/>
कहैं कबीर गहु ज्ञान को, छोड़ सकल अभिमान ॥ 888 ॥ <BR/><BR/>
काल काल सब कोई कहै, काल न चीन्है कोय । <BR/>
जेती मन की कल्पना, काल कहवै सोय ॥ 889 ॥ <BR/><BR/>
॥ उपदेश ॥ <BR/><BR/>
काल काम तत्काल है, बुरा न कीजै कोय । <BR/>
भले भलई पे लहै, बुरे बुराई होय ॥ 890 ॥ <BR/><BR/>
काल काम तत्काल है, बुरा न कीजै कोय । <BR/>
अनबोवे लुनता नहीं, बोवे लुनता होय ॥ 891 ॥ <BR/><BR/>
लेना है सो जल्द ले, कही सुनी मान । <BR/>
कहीं सुनी जुग जुग चली, आवागमन बँधान ॥ 892 ॥ <BR/><BR/>
खाय-पकाय लुटाय के, करि ले अपना काम । <BR/>
चलती बिरिया रे नरा, संग न चले छदाम ॥ 893 ॥ <BR/><BR/>
खाय-पकाय लुटाय के, यह मनुवा मिजमान । <BR/>
लेना होय सो लेई ले, यही गोय मैदान ॥ 894 ॥ <BR/><BR/>
गाँठि होय सो हाथ कर, हाथ होय सी देह । <BR/>
आगे हाट न बानिया, लेना होय सो लेह ॥ 895 ॥ <BR/><BR/>
देह खेह खोय जायगी, कौन कहेगा देह । <BR/>
निश्चय कर उपकार ही, जीवन का फल येह ॥ 896 ॥ <BR/><BR/>
कहै कबीर देय तू, सब लग तेरी देह । <BR/>
देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह ॥ 897 ॥ <BR/><BR/>
देह धरे का गुन यही, देह देह कछु देह । <BR/>
बहुरि न देही पाइये, अकी देह सुदेह ॥ 898 ॥ <BR/><BR/>
सह ही में सत बाटई, रोटी में ते टूक । <BR/> <BR/>
कहैं कबीर ता दास को, कबहुँ न आवे चूक ॥ 899 ॥ <BR/><BR/>
कहते तो कहि जान दे, गुरु की सीख तु लेय । <BR/>
साकट जन औ श्वान को, फेरि जवाब न देय ॥ 900 ॥ <BR/><BR/>
राम निकुल कुल भेटिया, सब कुल गया बिलाय ॥ 801 ॥ <BR/><BR/>
दुनिया के धोखे मुआ, चला कुटुम की कानि । <BR/>
तब कुल की क्या लाज है, जब ले धरा मसानि ॥ 802 ॥ <BR/><BR/>
दुनिया सेती दोसती, मुआ, होत भजन में भंग । <BR/>
एका एकी राम सों, कै साधुन के संग ॥ 803 ॥ <BR/><BR/>
यह तन काँचा कुंभ है, यहीं लिया रहिवास । <BR/>
कबीरा नैन निहारिया, नाहिं जीवन की आस ॥ 804 ॥ <BR/><BR/>
यह तन काँचा कुंभ है, चोट चहूँ दिस खाय । <BR/>
एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय ॥ 805 ॥ <BR/><BR/>
जंगल ढेरी राख की, उपरि उपरि हरियाय । <BR/>
ते भी होते मानवी, करते रंग रलियाय ॥ 806 ॥ <BR/><BR/>
मलमल खासा पहिनते, खाते नागर पान । <BR/>
टेढ़ा होकर चलते, करते बहुत गुमान ॥ 807 ॥ <BR/><BR/>
महलन माही पौढ़ते, परिमल अंग लगाय । <BR/>
ते सपने दीसे नहीं, देखत गये बिलाय ॥ 808 ॥ <BR/><BR/>
ऊजल पीहने कापड़ा, पान-सुपारी खाय । <BR/>
कबीर गुरू की भक्ति बिन, बाँधा जमपुर जाय ॥ 809 ॥ <BR/><BR/>
कुल करनी के कारने, ढिग ही रहिगो राम । <BR/>
कुल काकी लाजि है, जब जमकी धूमधाम ॥ 810 ॥ <BR/><BR/>
कुल करनी के कारने, हंसा गया बिगोय । <BR/>
तब कुल काको लाजि है, चाकिर पाँव का होय ॥ 811 ॥ <BR/><BR/>
मैं मेरी तू जानि करै, मेरी मूल बिनास । <BR/>
मेरी पग का पैखड़ा, मेरी गल की फाँस ॥ 812 ॥ <BR/><BR/>
ज्यों कोरी रेजा बुनै, नीरा आवै छौर । <BR/>
ऐसा लेखा मीच का, दौरि सकै तो दौर ॥ 813 ॥ <BR/><BR/>
इत पर धर उत है धरा, बनिजन आये हाथ । <BR/>
करम करीना बेचि के, उठि करि चालो काट ॥ 814 ॥ <BR/><BR/>
जिसको रहना उतघरा, सो क्यों जोड़े मित्र । <BR/>
जैसे पर घर पाहुना, रहै उठाये चित्त ॥ 815 ॥ <BR/><BR/>
मेरा संगी कोई नहीं, सबै स्वारथी लोय । <BR/>
मन परतीत न ऊपजै, जिय विस्वाय न होय ॥ 816 ॥ <BR/><BR/>
मैं भौंरो तोहि बरजिया, बन बन बास न लेय । <BR/>
अटकेगा कहुँ बेलि में, तड़फि- तड़फि जिय देय ॥ 817 ॥ <BR/><BR/>
दीन गँवायो दूनि संग, दुनी न चली साथ । <BR/>
पाँच कुल्हाड़ी मारिया, मूरख अपने हाथ ॥ 818 ॥ <BR/><BR/>
तू मति जानै बावरे, मेरा है यह कोय । <BR/>
प्रान पिण्ड सो बँधि रहा, सो नहिं अपना होय ॥ 819 ॥ <BR/><BR/>
या मन गहि जो थिर रहै, गहरी धूनी गाड़ि । <BR/>
चलती बिरयाँ उठि चला, हस्ती घोड़ा छाड़ि ॥ 820 ॥ <BR/><BR/>
तन सराय मन पाहरू, मनसा उतरी आय । <BR/>
कोई काहू का है नहीं, देखा ठोंकि बजाय ॥ 821 ॥ <BR/><BR/>
डर करनी डर परम गुरु, डर पारस डर सार । <BR/>
डरत रहै सो ऊबरे, गाफिल खाई मार ॥ 822 ॥ <BR/><BR/>
भय से भक्ति करै सबै, भय से पूजा होय । <BR/>
भय पारस है जीव को, निरभय होय न कोय ॥ 823 ॥ <BR/><BR/>
भय बिन भाव न ऊपजै, भय बिन होय न प्रीति । <BR/>
जब हिरदै से भय गया, मिटी सकल रस रीति ॥ 824 ॥ <BR/><BR/>
काल चक्र चक्की चलै, बहुत दिवस औ रात । <BR/>
सुगन अगुन दोउ पाटला, तामें जीव पिसात ॥ 825 ॥ <BR/><BR/>
बारी-बारी आपने, चले पियारे मीत । <BR/>
तेरी बारी जीयरा, नियरे आवै नीत ॥ 826 ॥ <BR/><BR/>
एक दिन ऐसा होयगा, कोय काहु का नाहिं । <BR/>
घर की नारी को कहै, तन की नारी जाहिं ॥ 827 ॥ <BR/><BR/>
बैल गढ़न्ता नर, चूका सींग रू पूँछ । <BR/>
एकहिं गुरुँ के ज्ञान बिनु, धिक दाढ़ी धिक मूँछ ॥ 828 ॥ <BR/><BR/>
यह बिरियाँ तो फिर नहीं, मनमें देख विचार । <BR/>
आया लाभहिं कारनै, जनम जुवा मति हार ॥ 829 ॥ <BR/><BR/>
खलक मिला खाली हुआ, बहुत किया बकवाद । <BR/>
बाँझ हिलावै पालना, तामें कौन सवाद ॥ 830 ॥ <BR/><BR/>
चले गये सो ना मिले, किसको पूछूँ जात । <BR/>
मात-पिता-सुत बान्धवा, झूठा सब संघात ॥ 831 ॥ <BR/><BR/>
विषय वासना उरझिकर जनम गँवाय जाद । <BR/>
अब पछितावा क्या करे, निज करनी कर याद ॥ 832 ॥ <BR/><BR/>
हे मतिहीनी माछीरी! राखि न सकी शरीर । <BR/>
सो सरवर सेवा नहीं , जाल काल नहिं कीर ॥ 833 ॥ <BR/><BR/>
मछरी यह छोड़ी नहीं, धीमर तेरो काल । <BR/>
जिहि जिहि डाबर धर करो, तहँ तहँ मेले जाल ॥ 834 ॥ <BR/><BR/>
परदा रहती पदुमिनी, करती कुल की कान । <BR/>
घड़ी जु पहुँची काल की, छोड़ भई मैदान ॥ 835 ॥ <BR/><BR/>
जागो लोगों मत सुवो, ना करूँ नींद से प्यार । <BR/>
जैसा सपना रैन का, ऐसा यह संसार ॥ 836 ॥ <BR/><BR/>
क्या करिये क्या जोड़िये, तोड़े जीवन काज । <BR/>
छाड़ि छाड़ि सब जात है, देह गेह धन राज ॥ 837 ॥ <BR/><BR/>
जिन घर नौबत बाजती, होत छतीसों राग । <BR/>
सो घर भी खाली पड़े, बैठने लागे काग ॥ 838 ॥ <BR/><BR/>
कबीर काया पाहुनी, हंस बटाऊ माहिं । <BR/>
ना जानूं कब जायगा, मोहि भरोसा नाहिं ॥ 839 ॥ <BR/><BR/>
जो तू परा है फंद में निकसेगा कब अंध । <BR/>
माया मद तोकूँ चढ़ा, मत भूले मतिमंद ॥ 840 ॥ <BR/><BR/>
अहिरन की चोरी करै, करै सुई का दान । <BR/>
ऊँचा चढ़ि कर देखता, केतिक दुरि विमान ॥ 841 ॥ <BR/><BR/>
नर नारायन रूप है, तू मति समझे देह । <BR/>
जो समझै तो समझ ले, खलक पलक में खोह ॥ 842 ॥ <BR/><BR/>
मन मुवा माया मुई, संशय मुवा शरीर । <BR/>
अविनाशी जो न मरे, तो क्यों मरे कबीर ॥ 843 ॥ <BR/><BR/>
मरूँ- मरूँ सब कोइ कहै, मेरी मरै बलाय । <BR/>
मरना था तो मरि चुका, अब को मरने जाय ॥ 844 ॥ <BR/><BR/>
एक बून्द के कारने, रोता सब संसार । <BR/>
अनेक बून्द खाली गये, तिनका नहीं विचार ॥ 845 ॥ <BR/><BR/>
समुझाये समुझे नहीं, धरे बहुत अभिमान । <BR/>
गुरु का शब्द उछेद है, कहत सकल हम जान ॥ 846 ॥ <BR/><BR/>
राज पाट धन पायके, क्यों करता अभिमान । <BR/>
पड़ोसी की जो दशा, भई सो अपनी जान ॥ 847 ॥ <BR/><BR/>
मूरख शब्द न मानई, धर्म न सुनै विचार । <BR/>
सत्य शब्द नहिं खोजई, जावै जम के द्वार ॥ 848 ॥ <BR/><BR/>
चेत सवेरे बाचरे, फिर पाछे पछिताय । <BR/>
तोको जाना दूर है, कहैं कबीर बुझाय ॥ 849 ॥ <BR/><BR/>
क्यों खोवे नरतन वृथा, परि विषयन के साथ । <BR/>
पाँच कुल्हाड़ी मारही, मूरख अपने हाथ ॥ 850 ॥ <BR/><BR/>
आँखि न देखे बावरा, शब्द सुनै नहिं कान । <BR/>
सिर के केस उज्ज्वल भये, अबहु निपट अजान ॥ 851 ॥ <BR/><BR/>
ज्ञानी होय सो मानही, बूझै शब्द हमार । <BR/>
कहैं कबीर सो बाँचि है, और सकल जमधार ॥ 852 ॥ <BR/><BR/>
॥ काल के विषय मे दोहे ॥ <BR/><BR/>
जोबन मिकदारी तजी, चली निशान बजाय । <BR/>
सिर पर सेत सिरायचा दिया बुढ़ापै आय ॥ 853 ॥ <BR/><BR/>
कबीर टुक-टुक चोंगता, पल-पल गयी बिहाय । <BR/>
जिव जंजाले पड़ि रहा, दियरा दममा आय ॥ 854 ॥ <BR/><BR/>
झूठे सुख को सुख कहै, मानत है मन मोद । <BR/>
जगत् चबैना काल का, कछु मूठी कछु गोद ॥ 855 ॥ <BR/><BR/>
काल जीव को ग्रासई, बहुत कह्यो समुझाय । <BR/>
कहैं कबीर में क्या करूँ, कोई नहीं पतियाय ॥ 856 ॥ <BR/><BR/>
निश्चय काल गरासही, बहुत कहा समुझाय । <BR/>
कहैं कबीर मैं का कहूँ, देखत न पतियाय ॥ 857 ॥ <BR/><BR/>
जो उगै तो आथवै, फूलै सो कुम्हिलाय । <BR/>
जो चुने सो ढ़हि पड़ै, जनमें सो मरि जाय ॥ 858 ॥ <BR/><BR/>
कुशल-कुशल जो पूछता, जग में रहा न कोय । <BR/>
जरा मुई न भय मुवा, कुशल कहाँ ते होय ॥ 859 ॥ <BR/><BR/>
जरा श्वान जोबन ससा, काल अहेरी नित्त । <BR/>
दो बैरी बिच झोंपड़ा कुशल कहाँ सो मित्र ॥ 860 ॥ <BR/><BR/>
बिरिया बीती बल घटा, केश पलटि भये और । <BR/>
बिगरा काज सँभारि ले, करि छूटने की ठौर ॥ 861 ॥ <BR/><BR/>
यह जीव आया दूर ते, जाना है बहु दूर । <BR/>
बिच के बासे बसि गया, काल रहा सिर पूर ॥ 862 ॥ <BR/><BR/>
कबीर गाफिल क्यों फिरै क्या सोता घनघोर । <BR/>
तेरे सिराने जम खड़ा, ज्यूँ अँधियारे चोर ॥ 863 ॥ <BR/><BR/>
कबीर पगरा दूर है, बीच पड़ी है रात । <BR/>
न जानों क्या होयेगा, ऊगन्ता परभात ॥ 864 ॥ <BR/><BR/>
कबीर मन्दिर आपने, नित उठि करता आल । <BR/>
मरहट देखी डरपता, चौडढ़े दीया डाल ॥ 865 ॥ <BR/><BR/>
धरती करते एक पग, समुंद्र करते फाल । <BR/>
हाथों परबत लौलते, ते भी खाये काल ॥ 866 ॥ <BR/><BR/>
आस पास जोधा खड़े, सबै बजावै गाल । <BR/>
मंझ महल से ले चला, ऐसा परबल काल ॥ 867 ॥ <BR/><BR/>
चहुँ दिसि पाका कोट था, मन्दिर नगर मझार । <BR/>
खिरकी खिरकी पाहरू, गज बन्दा दरबार ॥ <BR/><BR/>
चहुँ दिसि ठाढ़े सूरमा, हाथ लिये हाथियार । <BR/>
सबही यह तन देखता, काल ले गया मात ॥ 868 ॥ <BR/><BR/>
हम जाने थे खायेंगे, बहुत जिमि बहु माल । <BR/>
ज्यों का त्यों ही रहि गया, पकरि ले गया काल ॥ 869 ॥ <BR/><BR/>
काची काया मन अथिर, थिर थिर कर्म करन्त । <BR/>
ज्यों-ज्यों नर निधड़क फिरै, त्यों-त्यों काल हसन्त ॥ 870 ॥ <BR/><BR/>
हाथी परबत फाड़ते, समुन्दर छूट भराय । <BR/>
ते मुनिवर धरती गले, का कोई गरब कराय ॥ 871 ॥ <BR/><BR/>
संसै काल शरीर में, विषम काल है दूर । <BR/>
जाको कोई जाने नहीं, जारि करै सब धूर ॥ 872 ॥ <BR/><BR/>
बालपना भोले गया, और जुवा महमंत । <BR/>
वृद्धपने आलस गयो, चला जरन्ते अन्त ॥ 873 ॥ <BR/><BR/>
बेटा जाये क्या हुआ, कहा बजावै थाल । <BR/>
आवन-जावन होय रहा, ज्यों कीड़ी का नाल ॥ 874 ॥ <BR/><BR/>
ताजी छूटा शहर ते, कसबे पड़ी पुकार । <BR/>
दरवाजा जड़ा ही रहा, निकस गया असवार ॥ 875 ॥ <BR/><BR/>
खुलि खेलो संसार में, बाँधि न सक्कै कोय । <BR/>
घाट जगाती क्या करै, सिर पर पोट न होय ॥ 876 ॥ <BR/><BR/>
घाट जगाती धर्मराय, गुरुमुख ले पहिचान । <BR/>
छाप बिना गुरु नाम के, साकट रहा निदान ॥ 877 ॥ <BR/><BR/>
संसै काल शरीर में, जारि करै सब धूरि । <BR/>
काल से बांचे दास जन जिन पै द्दाल हुजूर ॥ 878 ॥ <BR/><BR/>
ऐसे साँच न मानई, तिलकी देखो जाय । <BR/>
जारि बारि कोयला करे, जमते देखा सोय ॥ 879 ॥ <BR/><BR/>
जारि बारि मिस्सी करे, मिस्सी करि है छार । <BR/>
कहैं कबीर कोइला करै, फिर दै दै औतार ॥ 880 ॥ <BR/><BR/>
काल पाय जब ऊपजो, काल पाय सब जाय । <BR/>
काल पाय सबि बिनिश है, काल काल कहँ खाय ॥ 881 ॥ <BR/><BR/>
पात झरन्ता देखि के, हँसती कूपलियाँ । <BR/>
हम चाले तु मचालिहौं, धीरी बापलियाँ ॥ 882 ॥ <BR/><BR/>
फागुन आवत देखि के, मन झूरे बनराय । <BR/>
जिन डाली हम केलि, सो ही ब्योरे जाय ॥ 883 ॥ <BR/><BR/>
मूस्या डरपैं काल सों, कठिन काल को जोर । <BR/>
स्वर्ग भूमि पाताल में जहाँ जावँ तहँ गोर ॥ 884 ॥ <BR/><BR/>
सब जग डरपै काल सों, ब्रह्मा, विष्णु महेश । <BR/>
सुर नर मुनि औ लोक सब, सात रसातल सेस ॥ 885॥
कबीरा पगरा दूरि है, आय पहुँची साँझ । <BR/>
जन-जन को मन राखता, वेश्या रहि गयी बाँझ ॥ 886 ॥ <BR/><BR/>
जाय झरोखे सोवता, फूलन सेज बिछाय । <BR/>
सो अब कहँ दीसै नहीं, छिन में गयो बोलाय ॥ 887 ॥ <BR/><BR/>
काल फिरे सिर ऊपरै, हाथों धरी कमान । <BR/>
कहैं कबीर गहु ज्ञान को, छोड़ सकल अभिमान ॥ 888 ॥ <BR/><BR/>
काल काल सब कोई कहै, काल न चीन्है कोय । <BR/>
जेती मन की कल्पना, काल कहवै सोय ॥ 889 ॥ <BR/><BR/>
॥ उपदेश ॥ <BR/><BR/>
काल काम तत्काल है, बुरा न कीजै कोय । <BR/>
भले भलई पे लहै, बुरे बुराई होय ॥ 890 ॥ <BR/><BR/>
काल काम तत्काल है, बुरा न कीजै कोय । <BR/>
अनबोवे लुनता नहीं, बोवे लुनता होय ॥ 891 ॥ <BR/><BR/>
लेना है सो जल्द ले, कही सुनी मान । <BR/>
कहीं सुनी जुग जुग चली, आवागमन बँधान ॥ 892 ॥ <BR/><BR/>
खाय-पकाय लुटाय के, करि ले अपना काम । <BR/>
चलती बिरिया रे नरा, संग न चले छदाम ॥ 893 ॥ <BR/><BR/>
खाय-पकाय लुटाय के, यह मनुवा मिजमान । <BR/>
लेना होय सो लेई ले, यही गोय मैदान ॥ 894 ॥ <BR/><BR/>
गाँठि होय सो हाथ कर, हाथ होय सी देह । <BR/>
आगे हाट न बानिया, लेना होय सो लेह ॥ 895 ॥ <BR/><BR/>
देह खेह खोय जायगी, कौन कहेगा देह । <BR/>
निश्चय कर उपकार ही, जीवन का फल येह ॥ 896 ॥ <BR/><BR/>
कहै कबीर देय तू, सब लग तेरी देह । <BR/>
देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह ॥ 897 ॥ <BR/><BR/>
देह धरे का गुन यही, देह देह कछु देह । <BR/>
बहुरि न देही पाइये, अकी देह सुदेह ॥ 898 ॥ <BR/><BR/>
सह ही में सत बाटई, रोटी में ते टूक । <BR/> <BR/>
कहैं कबीर ता दास को, कबहुँ न आवे चूक ॥ 899 ॥ <BR/><BR/>
कहते तो कहि जान दे, गुरु की सीख तु लेय । <BR/>
साकट जन औ श्वान को, फेरि जवाब न देय ॥ 900 ॥ <BR/><BR/>
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