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|रचनाकार=पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र"
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फ़ुर्सत के पल निकाल कर, मिलता ही कौन है
अपनो में अपना दोस्तों, अपना ही कौन है

अरसा गुज़र गया, हमे ख़ुद से मिले हुए
इक हमख़याल आज-कल, मिलता ही कौन है

दिन भर रहे वो साथ यह कोशिश तमाम की
सूरज के जैसा,शाम तक, ढलता ही कौन है

नंगे बदन को ढांप दे, ग़ुरबत की जात को
चादर भी इस मिज़ाज़ से, बुनता ही कौन है

जो भी मिला है हमसफ़र, राहों में रह गया
धूमिल पथों पे साथ अब, चलता ही कौन है</poem>
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