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मेरी सुबह / हरीश बी० शर्मा

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सुबह होने लगी है
दूधवाले की टेर और
अखबार की सर्र से।पहली अजान का समयअब, एक करवट और लेकरवापस सो जाने में निकल जाता हैसोचता हूं मंदिर की घंटियां भीनहीं सुनी कई दिनों सेवैसे भी यह सब‘सुबह हो गई’ बताने वालेकविताई प्रतीक, आउटडेटेड हो गए हैंसुबह होने लगी हैदूधवाले की टेर औरअखबार की सर्र से। उतरती है कसैली चाय के साथकलेजा चीरती न्यूजें। अखबार सूरजजो आंखें खोल सकता हैचाय मंदिर की घंटियांखूब ताजगी भर देती हैसूरज, जिसमें समाचार होते हैंशोर के सन्नाटों केशरारतों-लापरवाहियों केहथकंडो-हाथापाइयों केकरतूतों-कबाड़ो केहजामत, मूंछ-मुंड़ाई केऔर इसी बीच सुबह हो जाती हैचढ़ जाता है सूरज एकदम ऊपर पहले-पहले कुछ एब्नार्मल लगा होगाअब तरोताजगी आने लगी हैआदत हो गई हैऐसे समाचारों कीकसैली सुबह कीऔर सूरज (असली वाला)क्षमा करें, वह ज्यादा माने नहीं रखताकहीं-कहीं तो दिन भीकथित सूर्यास्त के बाद शुरू होता हैइस असली वाले सूरज कोमाना जाता हैएक ईमानदार चपरासी‘बेचारा’ सही वक्त पर आता हैड्यूटी पूरी करता है।
</Poem>
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