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14:11, 9 सितम्बर 2011 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार= दिनेश त्रिपाठी 'शम्स'
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<poem>
एक झूठी मुस्कुराह्ट को खुशी कहते रहे ,
सिर्फ़ जीने भर को हम क्यों ज़िन्दगी कहते रहे
लोग प्यासे कल भी थे हैं आज भी प्यासे बहुत ,
फिर भी सब सहरा को जाने क्यों नदी कहते रहे
हम तो अपने आप को ही ढूंढते थे दर-ब-दर ,
लोग जाने क्या समझ आवारगी कहते रहे
अब हमारे लब खुले तो आप यूं बेचैन हैं ,
जबकि सदियों चुप थे हम बस आप ही कहते रहे
रहनुमाओं में तिज़ारत का हुनर क्या खूब है ,
तीरगी दे करके हमको रोशनी कहते रहे
</poem>
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