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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

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<poem>

आराम के, सुकून के राहत के चार दिन
या रब अता हों तेरी इनायत के चार दिन

अब ये न पूछ कैसे कटे हैं तेरे बग़ैर
कट ही गए हैं तेरी ज़रूरत के चार दिन

पगले तू ज़िन्दगी के किसी काम का नहीं
भारी पड़े हैं तुझको मुसीबत के चार दिन

मर्ज़ी किसी से वक़्त ने पूछी कहाँ कभी
किसको मिले हैं अपनी तबीयत के चार दिन

मुजरिम समझ के दे दे सज़ा या बरी ही कर
बहला न मुझको देके ज़मानत के चार दिन

दर्दों का दौर ख़त्म भी होगा, यक़ीन रख
होते कहाँ हैं एक सी सूरत के चार दिन

ये तो बता ‘अकेला’ जो गुज़रे सुकून से
ख़्वाबों के थे या थे वो हक़ीक़त के चार दिन

<poem>
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