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{{KKRachna
|रचनाकार=दिनेश त्रिपाठी 'शम्स'
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<poem>
दरपन को झुठलाने बैठे हैं ,
कितने लोग सयाने बैठे हैं .
नये समय की ठोकर से मत डर ,
अभी तो लोग पुराने बैठे हैं .
उधर जल रही है सारी बस्ती ,
इधर आप यूं गाने बैठे हैं .
फूलों के साहस को करो नमन ,
पत्थर को पिघलाने बैठे हैं .
खुद से तो अनजान रहे लेकिन ,
औरों को पहचाने बैठे हैं .
सब डूबे हैं अपनी मस्ती में ,
सबके सब दीवाने बैठे हैं .
‘शम्स’ नज़र का धोखा भर है या ,
वो ही कुछ बेगाने बैठे हैं .
</poem>