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{{KKRachna
|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|संग्रह=शेष बची चौथाई रात / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
उमीदों के कई रंगीं फ़साने ढूँढ़ लेते हैं
जिन्हें जीना है जीने के बहाने ढूँढ़ लेते हैं
न सूझे है कहाँ जाकर छुपूँ कैसे बचूँ इनसे
ये बैरी ग़म मेरे सारे ठिकाने ढूँढ़ लेते हैं
हम उनसे दोस्ती का इक बहाना ढूँढ़ते जब तक
वो तब तक दुश्मनी के सौ बहाने ढूँढ़ लेते हैं
ख़फ़ा है हमसे ये दुनिया हमारा है क़ुसूर इतना
समझदारी से हम कुछ पल सुहाने ढूँढ़ लेते हैं
मेरी बातों का अक्सर मान जाते हैं बुरा यूँ ही
वो जाने क्या मेरे लफ़्ज़ों के माने ढूँढ़ लेते हैं
किसी से उनको क्या मतलब, मगर हाँ वक्त पड़ने पर
ज़माने भर से अपने दोस्ताने ढूँढ़ लेते हैं
करो मत फ़िक्र, वो दो वक्त की रोटी जुटा लेगा
परिन्दे भी ‘अकेला’ चार दाने ढूँढ़ लेते हैं
<poem>
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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|संग्रह=शेष बची चौथाई रात / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>
उमीदों के कई रंगीं फ़साने ढूँढ़ लेते हैं
जिन्हें जीना है जीने के बहाने ढूँढ़ लेते हैं
न सूझे है कहाँ जाकर छुपूँ कैसे बचूँ इनसे
ये बैरी ग़म मेरे सारे ठिकाने ढूँढ़ लेते हैं
हम उनसे दोस्ती का इक बहाना ढूँढ़ते जब तक
वो तब तक दुश्मनी के सौ बहाने ढूँढ़ लेते हैं
ख़फ़ा है हमसे ये दुनिया हमारा है क़ुसूर इतना
समझदारी से हम कुछ पल सुहाने ढूँढ़ लेते हैं
मेरी बातों का अक्सर मान जाते हैं बुरा यूँ ही
वो जाने क्या मेरे लफ़्ज़ों के माने ढूँढ़ लेते हैं
किसी से उनको क्या मतलब, मगर हाँ वक्त पड़ने पर
ज़माने भर से अपने दोस्ताने ढूँढ़ लेते हैं
करो मत फ़िक्र, वो दो वक्त की रोटी जुटा लेगा
परिन्दे भी ‘अकेला’ चार दाने ढूँढ़ लेते हैं
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