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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

|संग्रह=शेष बची चौथाई रात / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

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<poem>
रूठा हुआ है मुझसे इस बात पर ज़माना
शामिल नहीं है मेरी फ़ितरत में सर झुकाना

मुझे मौत से डरा मत, कई बार मर चुका हूँ
किसी मौत से नहीं कम कोई ख़्वाब टूट जाना

हमको तो दिख रहे हैं हालात साजिशों के
पत्थर जता रहे हैं शीशे से दोस्ताना

तुझे याद करते रहना भाता है दिल को वरना
तुझको भुला भी देते गर चाहते भुलाना

आए थे बनके मेहमाँ जाने का नाम भूले
भाया ग़मों को बेहद मेरा ग़रीबख़ाना

दर्दों की धूप आखि़र अब क्या बिगाड़ लेगी
हमको तो मिल गया है ग़ज़लों का शामियाना

ग़फ़लत हमें 'अकेला' फिर पड़ गई है महँगी
हम जब तलक पहुँचते 'बस' हो गई रवाना
<poem>
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