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{{KKRachna
|रचनाकार=त्रिपुरारि कुमार शर्मा
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<Poem>
बदन बेताब है सूखे हुए पत्तों की तरह
तेरी लौ जो मिल जाए तो जल ही उठे
सूखने लगे हैं उंगलियों के लब
हाथों के चेहरे उदास रहते हैं
सर पटक रही हैं बाहें बार-बार
मिलो तो होठ पर गर्म-सा बोसा रख दूँ
लम्हे तड़प रहे हैं माज़ी की गोद में
बिस्तर भी रुखड़ा-सा नज़र आता है
तेरी बाहें नसीब होंगी जब
मैं डूब कर सुएसाइड कर लूँगा
<Poem>
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