भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=त्रिपुरारि कुमार शर्मा }} {{KKCatKavita}} <Poem> किस-किस तमन्न…
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=त्रिपुरारि कुमार शर्मा
}}
{{KKCatKavita}}
<Poem>
किस-किस तमन्ना से न देखा है फ़ोन को
किस-किस उम्मीद से न आवाज़ सुनी है
फोन की घंटी जब भी जल उठी
सदियों से लम्बे ख़्वाब पल में सजा लिए
उंगलियाँ छूती है आग के लब को
और जिस तरह दूर हटती है
हाथ मेरा उसी रफ़्तार से
फ़ोन की तरफ बढ़ता है
कितनी हसरतों से ‘कॉल रिसीव’ करता हूँ...
टूटने लगता है साँसों का सिलसिला
आवाज़ भी मेरी छिल-सी जाती है
और मेरी आँखें घुल-सी जाती हैं
डूबने लगती है नब्ज़ भी मेरी
लहू का दरिया जमने लगता है
देखता रहता हूँ दूर तक यूँ ही
कैसे-कैसे मंज़र बनते-बिगड़ते हैं
पिघलने लगता है जिस्म का हिस्सा
दर्द की आँधी बहुत तेज़ होती है
रूह की तक़लीफ और बढ़ जाती है
जब पता चलता है कि ‘तेरा फ़ोन नहीं है’
बहुत देर तक रहती है होंठों पर ख़ामोशी
और इतने में फ़ोन बुझ जाता है...
मेरे साथ ऐसी मजबूरियाँ क्यों हैं
और मैं इतना मजबूर-सा क्यों हूँ?
कि जब भी जी चाहे, अपनी मर्ज़ी हो
तुमसे गुफ़्तगू तक कर नहीं सकता
कि बात ‘एक कॉल’ भी हो नहीं सकती
और एक तुम्हारा फ़ोन नहीं आता
मैं दिल से क्या कहूँ? दिल मुझसे क्या कहे?
अपने ही ज़ख्मों को नोचता रहता हूँ
और फिर मरहम पट्टी भी करता हूँ
दिन राख होता है कुछ इस तरह अपना
पल-पल तुम्हारे फ़ोन के इंतज़ार में...
<Poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=त्रिपुरारि कुमार शर्मा
}}
{{KKCatKavita}}
<Poem>
किस-किस तमन्ना से न देखा है फ़ोन को
किस-किस उम्मीद से न आवाज़ सुनी है
फोन की घंटी जब भी जल उठी
सदियों से लम्बे ख़्वाब पल में सजा लिए
उंगलियाँ छूती है आग के लब को
और जिस तरह दूर हटती है
हाथ मेरा उसी रफ़्तार से
फ़ोन की तरफ बढ़ता है
कितनी हसरतों से ‘कॉल रिसीव’ करता हूँ...
टूटने लगता है साँसों का सिलसिला
आवाज़ भी मेरी छिल-सी जाती है
और मेरी आँखें घुल-सी जाती हैं
डूबने लगती है नब्ज़ भी मेरी
लहू का दरिया जमने लगता है
देखता रहता हूँ दूर तक यूँ ही
कैसे-कैसे मंज़र बनते-बिगड़ते हैं
पिघलने लगता है जिस्म का हिस्सा
दर्द की आँधी बहुत तेज़ होती है
रूह की तक़लीफ और बढ़ जाती है
जब पता चलता है कि ‘तेरा फ़ोन नहीं है’
बहुत देर तक रहती है होंठों पर ख़ामोशी
और इतने में फ़ोन बुझ जाता है...
मेरे साथ ऐसी मजबूरियाँ क्यों हैं
और मैं इतना मजबूर-सा क्यों हूँ?
कि जब भी जी चाहे, अपनी मर्ज़ी हो
तुमसे गुफ़्तगू तक कर नहीं सकता
कि बात ‘एक कॉल’ भी हो नहीं सकती
और एक तुम्हारा फ़ोन नहीं आता
मैं दिल से क्या कहूँ? दिल मुझसे क्या कहे?
अपने ही ज़ख्मों को नोचता रहता हूँ
और फिर मरहम पट्टी भी करता हूँ
दिन राख होता है कुछ इस तरह अपना
पल-पल तुम्हारे फ़ोन के इंतज़ार में...
<Poem>