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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>
आया तेरा ख़याल कि आये हसीन ख़्वाब
दिल में न जाने कितने समाये हसीन ख़्वाब

उस हादसे में यार सभी कुछ तो लुट गया
मुश्किल से जैसे तैसे बचाये हसीन ख़्वाब

कैसे कहें कि उसने कभी कुछ नहीं दिया
आँखों को किसने बरसों दिखाये हसीन ख़्वाब

दुखती रगों को छेड़ रही थीं हक़ीक़तें
अच्छा लगा जो तुमने सुनाये हसीन ख़्वाब

साया है कुल जहान पे दहशत का इन दिनों
कोई कहाँ से ढूंढ़ के लाये हसीन ख़्वाब

ये हाथ-पाँव तुझको चलाने पड़ेंगे सुन
पूरे न होंगे बैठे बिठाये हसीन ख़्वाब

चूमे क़दम तुम्हारे हरिक दिन नई ख़ुशी
हर शब तुम्हारे वास्ते लाये हसीन ख्वाब

उनसे ‘अकेला’ कैसे कहूँ अपने दिल की बात
डरता हूँ मैं कि टूट न जाये हसीन ख़्वाब
<poem>
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