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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>
किसी सूरत नहीं मिलता है अब आराम ऐ भाई
बढ़ा देना हमारी सिम्त भी इक जाम ऐ भाई

बस इतना सोचना है किस तरह आग़ाज़ अच्छा हो
अभी से सोचना क्या, होगा क्या अंजाम ऐ भाई

वो मुझसे हँस के बोली थी, मैं उससे हँस के बोला था
बस इतनी बात पर ही मच गया कोहराम ऐ भाई

ख़ज़ाना हाथ लग जाये कभी हमने नहीं सोचा
हमें बस चाहिए मेहनत के पूरे दाम ऐ भाई

सिधाई ने मेरी मुझको बड़ा रूतबा दिलाया है
कि अब कोई भी कह जाता है ‘लल्लूराम’ ऐ भाई

बता तू ही ज़माने भर के ख़ुश होने से क्या हासिल
वही नाराज़ है जिससे हमें है काम ऐ भाई

पता जिसका शहर भर में न कोई भी बता पाये
‘अकेला’ इस क़दर भी तो नहीं गुमनाम ऐ भाई
<poem>
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