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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>
जान आफत में फंसी है, क्या करूँ क्या ना करूँ
हाय कैसी ज़िन्दगी है, क्या करूँ क्या ना करूँ

डूबने के वक्त तिनके का सहारा भी न लूँ
ये हिदायत मिल रही है, क्या करूँ क्या ना करूँ

ब्याह बेटी का हो कैसे, है कहाँ मोटी रक़म
कुण्डली भी मंगली है, क्या करूँ क्या ना करूँ

ख़र्च लाखों के खड़े हैं मुन्तज़िर तनख़्वाह के
दो टके की नौकरी है, क्या करूँ क्या ना करूँ

एक तो ये रास्ता भी रास्ते जैसा नहीं
उस पे काली रात भी है, क्या करूँ क्या ना करूँ

और बढ़ जाती है हर इक जाम पर, बुझती नहीं
क्या ग़ज़ब ये तिश्नगी है, क्या करूँ क्या ना करूँ

ऐ ‘अकेला’ आदमी भटका हुआ है हर तरफ़
हर कहीं चर्चा यही है, क्या करूँ क्या ना करूँ
<poem>
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