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Kavita Kosh से
फिर हवाएँ हुईं सरस-शीतल,
मुट्ठियों से शहद छिड़कता है
द्वार का पर सन्त-सा खड़ा पीपल,
दिन रुई-सा
इधर-उधर उड़ता