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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

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<poem>
दे गया धैर्यधारण कला, बन्धुओ
दर्द उपलब्धिकारक रहा, बन्धुओ

दिग्भ्रमित कर गई मन की कैकेयी को
स्वार्थों की सजग मंथरा बन्धुओ

झूठे आश्वासनों के भरोसे जिए
थे विवश और करते भी क्या बन्धुओ

आस गन्तव्य की क्षीर्ण पड़ने लगी
पथ-प्रदर्शक को है अस्थमा, बन्धुओ

शत्रु हैं वे अघोषित कहाँ ज्ञात था
हम निभाते रहे मित्रता, बन्धुओ

अनमना दृष्टिगत हो रहा क्यों गगन
क्यों व्यथित है समूची धरा, बन्धुओ

है सुनिश्चित मिलेंगी हमें सिद्धियाँ
पूर्ण होने तो दो साधना बन्धुओ

भूल हो यदि ‘अकेला’ से करना क्षमा
आपसे है यही प्रार्थना बन्धुओ
<poem>
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