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{{KKRachna
|रचनाकार=ओम निश्चल
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<Poem>
किसिम किसिम के
संबोधन के महज दिखावे हैं
संबंधों की अलगनियों पर सबके दावे हैं।

दुर्घटना की आशंकाऍं
जैसे जहॉं-तहॉं
कुशल क्षेम की तहकी़कातें
होती रोज यहॉं
अपनेपन की गंध तनिक हो
इनमें मुमकिन है
पर ये रटे-रटाए जुमले महज छलावे हैं।

घर दफ्तर हर जगह
दीखते बॉंहें फैलाए
होठों पर मुस्कानें ओढ़े
भीड़ों के साए
हँसते बतियाते हैं यों तो
लोग बहुत खुल कर
मुँह पर ठकुर-सुहाती भीतर जलते लावे हैं।

निहित स्वार्थों वाली जेबें
सभी ढॉंपते हैं
ग़ैरों की मजबूरी का सुख
लोग बॉंटते हैं
दुआ-बंदगी, हँसी -ठहाके
हुए औपचारिक
आईनों के पुल तारीफी महज भुलावे हैं।
<Poem>
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