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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

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<poem>
दुखी हो जब तुम्हारा मन, अकेला की ग़ज़ल पढ़ना
लगे यदि भार ये जीवन, अकेला की ग़ज़ल पढ़ना

पतंगा क्यों शम़ा पर ज़िन्दगी अपनी लुटाता है
समझना हो अगर कारन, अकेला की ग़ज़ल पढ़ना

रिझाने के लिए देवों को पढ़ना श्लोक मनचाहे
करो जब न्याय का पूजन, अकेला की ग़ज़ल पढ़ना

न छोटा दिल को करना जब पराया हो ये जग सारा
मिलेगा तुमको अपनापन, अकेला की ग़ज़ल पढ़ना

हो ख़ुद को देखना बेहद ज़रूरी और ऐसे में
न हो गर पास में दरपन, अकेला की ग़ज़ल पढ़ना

सचाई का न अब कोई जहाँ में, कौन कहता है
मिलेगा सच को अनुमोदन, अकेला की ग़ज़ल पढ़ना

सुना है छन्द के सामर्थ्य पर शंका तुझे भी है
अरे ओ अक्ल के दुश्मन, अकेला की ग़ज़ल पढ़ना
<poem>
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