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{{KKRachna
|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|संग्रह=शेष बची चौथाई रात / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
रूठा जब से सावन है
उजड़ा-उजड़ा उपवन है
शायद ही बरसें ये घन
इनमें भारी गर्जन है
पार्थ सफल होगा कैसे
कृष्णा से ही अनबन है
पीड़ाओं का अनुबंधन
लगता मुझको जीवन है
सच को झुठलाना उसने
कहता धुंधला दरपन है
कथ्य युधिष्ठिर से उनके
लेकिन मन दुर्योधन है
स्वार्थपरक प्रस्ताव सभी
लोलुप हर अनुमोदन है
भौतिकता ओढ़े हैं लोग
खूंटी पर अपनापन है
<poem>
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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
|संग्रह=शेष बची चौथाई रात / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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<poem>
रूठा जब से सावन है
उजड़ा-उजड़ा उपवन है
शायद ही बरसें ये घन
इनमें भारी गर्जन है
पार्थ सफल होगा कैसे
कृष्णा से ही अनबन है
पीड़ाओं का अनुबंधन
लगता मुझको जीवन है
सच को झुठलाना उसने
कहता धुंधला दरपन है
कथ्य युधिष्ठिर से उनके
लेकिन मन दुर्योधन है
स्वार्थपरक प्रस्ताव सभी
लोलुप हर अनुमोदन है
भौतिकता ओढ़े हैं लोग
खूंटी पर अपनापन है
<poem>