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इधर भी / निशान्त

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{{KKRachna
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{{KKCatKavita‎}}<poem>आम जन जिधर
जाया करता है
रोज सैर को
उधर मैं
कम ही जाया करता हूँ
मैं अक्सर
पकड़ा करता हूँ
खेतों के छोटे रास्ते
उसी आदत के चलते
आज मैं निकला उधर
जिधर पड़ी है
काफी सारी
सरकारी भूमि खाली
और जिसका कुछ हिस्सा
आजकल सड़ रहा है
गन्दें पानी के नाले से
थोड़ी बदबू के बावजूद
वहॉ बहुत कुछ था
देखने -समझने लायक
मैनें देखे पानी पर
उड़ते बैठते पखेरू
एक ओर खेत में
अच्छी खिली
नरमे-कपास की फसल
उगता हुआ
लाल- लाल सूरज
धुंए-धुंध की झीनी
चादर उठाता
कस्बे का विहंगम नजारा
ढाणी में खड़ा
किसान परिवार
जिसने ताका अचरज से कि
कोई है
जो आता है
इधर भी</poem>
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