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|रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

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<poem>
दिल तो करता है लगाऊँ लात
भ्रष्ट लोगों से करूँ क्या बात

वार पीछे से, अँधेरे में
आपने दिखला ही दी औक़ात

चंद ख़ुशियाँ हैं डरी-सहमी
दर्द बैठे हैं लगाए घात

वक्त पड़ने पर उठाया कर
जोड़ने भर को नहीं ये हाथ

दें ज़रा इज़्ज़त से मज़दूरी
यूँ न दें जैसे कि हो ख़ैरात

बारिशों की रूत गयी कोरी
सर्द मौसम में हुई बरसात

दण्ड दें मैं भी हूँ उत्पाती
है अगर हक़ माँगना उत्पात

उनका कविताओं से क्या संबंध
चुटकुलों ने कर दिया विख्यात

दिन भी निकलेगा ‘अकेला’ जी
कब तलक ठहरेगी काली रात
<poem>
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