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फिर सुन रहा हूँ गुज़रे ज़माने की चाप को / शकेब जलाली
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08:30, 16 अक्टूबर 2011
|रचनाकार= शकेब जलाली
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
फिर सुन रहा हूँ गुज़रे ज़माने की चाप को
भूला हुआ था देर से में अपने आप
को
रहते हैं कुछ मलूल<ref>उदास
Shrddha
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