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|रचनाकार=अनिल जनविजयप्रमोद कौंसवाल
|संग्रह=रूपिन-सूपिन / प्रमोद कौंसवाल
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हाट में रही न बाज़ार में
दर्द में रही न करुणा में
उफ् भरती शांत और विन्रम इस हवा में
पृथ्वी कहाँ से भरूँ अपने भीतर
कहाँ से आप
हमारी घाटी में नहीं पसरी
खेतों में नहीं खिली
आंगन में नहीं उगी
सिवाय इसके कि विरासत में मिली
ऐसी पृथ्वी
वह ग़ुस्से में बजती है
नगाड़े की तरह
चौराहे पर दिखती है मज़मे की तरह
वह घोड़ों पर चाबुक की तरह बजती है
नंगे पैरों के नीचे
अंगारों-सी फैलती है
याद रखो
यही पृथ्वी है
मक़्क़ारी बेमानी ग़रीबी
झूठ जेल हत्या महामारी
यही इसकी देह है
इस पर तुम आत्मा की तरह क़ैद हो जाओ
इसे भरो अपने भीतर
झाँको यहाँ से देखो कितनी
नश्वर है
यह पृथ्वी
यहाँ द्रास है करगिल है
सियाचिन है हेब्रान है
इससे ज़्यादा सुरक्षित कहाँ है पृथ्वी
इसके एक छोर पर
मोनिका में सना
मौत के दानवों को
भीख़ को तश्तरियों में बाँटता ह्वाइट हाउस है
दूसरे में दिल्ली के शराबख़ाने में मूतकर
बैठा धोतीदारी है
मथुरा की रंडियों और अयोध्या के पंडों से घिरी संसद है
इससे ज़्यादा पवित्र कहाँ है पृथ्वी
इस पृथ्वी को अपने भीतर भरो
अंत:मन में भरो
इस पृथ्वी के बाद कोई पृथ्वी नहीं है
अपना मुँह धो लो!
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