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शब्दों के स्थापत्य के पार / विमलेश त्रिपाठी
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05:53, 11 नवम्बर 2011
<poem>
शब्दों के स्थापत्य के पार हर शाम
घर
के
की
खपरैल से उठती हुई एक उदास कराह है
एक फाग है भूली बिसरी
आदमी के भीतर डूबते ताप को बचाने की
और एक लम्बी कविता है
युद्ध
के
की
शपथ और हथियारों से लैस
मेरे जन्म के साथ चलती हुई
निरन्तर और अथक ।
</poem>
अनिल जनविजय
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