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'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजय कुमार पंत }} {{KKCatKavita}} <poem> कुछ कहने ...' के साथ नया पन्ना बनाया
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{{KKRachna
|रचनाकार=विजय कुमार पंत
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
कुछ कहने की हिम्मत
जुटा
स्वयं को ढाढस बंधा
सहमे, सहमे कदम
और मैं उन्ही पर खड़ी रहती
डरते डरते
जब भी कहती
डैड!
वो
हाँ कहो !
सुनते ही
लगता है
गर्म पिघलता लावा
कानो के पास से
गुज़र गया हो
उनकी आँखों के
बेशुमार प्रश्न देख कर
मेरी जिज्ञासा जो जानना चाहती
थी उनकी राय
तुरंत ले आती है चाय
अ-अ-आप चाय पियेंगे?
और मैं उबलना शुरू
कर देती हूँ
अपने ह्रदय की केतली में
अपने जीवन की चाय
भाप उड़ती है
ढक्कन खनखनाता है
कभी तुम्हारा तो
कभी डैड का चेहरा
याद आता है !!
इस चाय में तो मैं पत्ती, चीनी
दूध दाल रही हूँ
पर उस चाय को कौन बनाएगा
जिसे मैं कब से अपने मन में उबाल रही हूँ ?
</poem>
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|रचनाकार=विजय कुमार पंत
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कुछ कहने की हिम्मत
जुटा
स्वयं को ढाढस बंधा
सहमे, सहमे कदम
और मैं उन्ही पर खड़ी रहती
डरते डरते
जब भी कहती
डैड!
वो
हाँ कहो !
सुनते ही
लगता है
गर्म पिघलता लावा
कानो के पास से
गुज़र गया हो
उनकी आँखों के
बेशुमार प्रश्न देख कर
मेरी जिज्ञासा जो जानना चाहती
थी उनकी राय
तुरंत ले आती है चाय
अ-अ-आप चाय पियेंगे?
और मैं उबलना शुरू
कर देती हूँ
अपने ह्रदय की केतली में
अपने जीवन की चाय
भाप उड़ती है
ढक्कन खनखनाता है
कभी तुम्हारा तो
कभी डैड का चेहरा
याद आता है !!
इस चाय में तो मैं पत्ती, चीनी
दूध दाल रही हूँ
पर उस चाय को कौन बनाएगा
जिसे मैं कब से अपने मन में उबाल रही हूँ ?
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