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चित्राधार / जयशंकर प्रसाद

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और जब कहिहै तब का रहिहै।
 
हमरे लिए प्रान प्रिय तुम सों, यह हम कैसे सहिहै॥
 
तव दरबारहू लगत सिपारत यह अचरज प्रिय कैसो?
 
कान फुकावै कौन, हम कि तुम! रुचे करो तुम तैसो॥
 
ये मन्त्री हमरो तुम्हरो कछु भेद न जानन पावें।
 
लहि 'प्रसाद' तुम्हरो जग में, प्रिय जूठ खान को जावें॥
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