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महानगर / हरिवंशराय बच्चन

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पल में साड़ी बदल ब्‍याह में शिरकत करती,-रँगी- चुँगी-
::::खिल-क्षिल खिल हँसती।
मानवता है दान, दया, दम। यहाँ नहीं कोई देता है; दिया कहीं पाने का अब विश्‍वास मर गया। जो देता है, यहीं, कहीं उससे ज्‍़यादा पाने-लेने को। दया हृदय की दुर्बलता द्योतित करती है, लोग यहाँ के उसे छिपाते, प्रकट हुई तो उससे लाभ उठानेवाले घेरे, पीछे लगे रहेंगे। दमन दूसरा जहाँ किसी का करने को हर समय, आत्‍मदमन किसलिए करेगा? अगर करेगा तो वह औरों को मुँह माँगा अवसर देगा। आत्‍म-प्रस्‍फुटन, आत्‍म प्रकाशन और आत्‍म-विज्ञापन में सब लोग लगे हैं। गुण-योग्‍यता उपेक्षित रखकर यहाँ दबा दी जाती असमय, उछल-कूद करनेवाले लोगों की नज़रों में तो रहते। लोग याद तो उनको करते, चाहे उनके अवगुण कहते। दम के बूदम अनदेखे, अनसुने, अचर्चित, ::अविदित मरते। छूट गई मानवता जिनकी-किसी तरह भी- उनको जैसे बड़ी व्‍याधि से मुक्ति मिल गई, उन्‍हें जगत-गति नहीं व्‍यापती; बड़े भले वे!  किन्‍तु अभागे कुछ ऐसे हैं, महानगर में आ तो पड़े मगर मानवता अपनी छोड़ नहीं पाए हैं। वे अपना अपनत्‍व मिटा दें तो क्‍या उनके पास बचेगा? तो क्‍या वह खुद रह जाएँगा? वे अपने को नबी समझते महानगर में अजनबियों से घूमा करते- वे कुंठित, संत्रस्‍त, विखंडित, पस्‍त, निराश, हताश, परास्‍त, पिटे, अलगाए, ::अपने घर में निर्वासित-से, :::ऊबे-ऊबे,  ::अंध गुहा में डुबे-डुबे- कलाकार, साहित्‍यकार, कवि- असंगठित, एकाकी, केंद्र वृत्‍त के अपने। कभी-कभी वे अपने स्वत्‍व जनाने को, प्रक्षिप्‍त स्‍वयं को करने को कुछ हाथ-पाँव माराकरते हैं, पर प्रयत्‍न सब उनका तपते, बड़े तवे पर पड़ी बूँद-सा छन्‍न-छन्‍न करते रह जाता, महानगर के महानाद केनक्‍क़ारों में ::तूती बनकर- प्रतिध्‍वनियाँ चाहे छोटे कस्‍बों से आएँ।  शेष भाग शीघ्र  महानगर के महायंत्र के उपकरणों, कल, कीलों, काँटों, पहियों में परिवर्तित होकर-जीवित जड़ से- चलते-फिरते, हिलते-डुलते करूँ-क्‍या करूँ-क्‍या न करूँ- क्या करूँ-करूँ-स्‍वर करते रहते।  मैं जब पहले-पहल गाँव- नंग, गंग, बौन, असलाए- महानगर के अंदर पहुँचा- शोर शरर के साथ धुआँ-धक्‍कड़ ब‍िखराता, भीड़-भाड़-भब्‍भड़ को चारों तरफ़ रेलता और ठेलता और पेलता औ' ढकेलता अथक, अनवरत, अविरत गति से- तो मुझको यह लगा कि लाखों पुर्जोंवाली एक विराट मशी अपरिमित शक्‍ति‍-मत्‍त इंजन के बल पर बड़े झपाटे से चलती, चलती ही टंकित जाती, ::जैसे कभी न थमनेवाली; और खड़ा मैं उसके इतने निकट कि ख़तरे की सीमा में पहुँच गया हूँ, बाल-बाल ही बचा हुआ हूँ, फिर भी मुझको जैसे जबरन खींच रही वह, पलक झपकते ले लपेट में कुचल-पुचल कर दिया जाएगा।हड्डी-पसली ::टुकड़े-टुकड़े ::रेशे-रेशे कर डालेगी।  पत्र लिखा बाबा को मैंने- महानगर यह एक महादानव है, जबड़े फाड़े खाने दौड़ रहा है, औ' उससे बचने को उसके जबड़े की ही ओर जैसे भगा जाता हूँ।  बाबा थे अनुभवी, पकड़ के सही; पत्र का उत्‍तर आया, जिसने धीरज मुझे बँधाया, महानगर में रहने का गुर बाबा ने था मुझे बताया- महानगर की महानता की ओर न देखो, नगर की सड़क, सड़क की गली, गली का फ्लैट, फ्लैट का नंबर अपना बस पहचानो। रोटी-रोज़ी की जो सीधी राह, ::उसी पर आओ-जागो; ::गो उस ::पर भी थोड़ी मुश्किल तो होगी ही- तब यह दानव तुम्‍हें नहीं खाने दौड़ेगा, ::तुम्‍हीं मजे में इसको खाओ।  औ' बरसो के बाद मुझे यह ज्ञान हुआ है, यह गुर सारे नागरिकों का बुझा-जाना, महानगर कुछ और नहीं है, महानगर के नागरिकों का केवल खाना। समझ रहा हर एक शेष को है वह खाता, और अंत में पचा हुआ ::अपने को पाता।
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