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{{KKRachna
|रचनाकार=द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
|संग्रह=
}}
{{KKCatGeet}}<poem>इतने ऊँचे उठो कि जितना उठा गगन है।<br>देखो इस सारी दुनिया को एक दृष्टि से<br>सिंचित करो धरा, समता की भाव वृष्टि से<br>जाति भेद की, धर्म-वेश की<br>काले गोरे रंग-द्वेष की<br>ज्वालाओं से जलते जग में<br>इतने शीतल बहो कि जितना मलय पवन है॥<br><br>
नये हाथ देखो इस सारी दुनिया को एक दृष्टि से, वर्तमान का रूप सँवारो<br>नयी तूलिका सिंचित करो धरा, समता की भाव वृष्टि से चित्रों के रंग उभारो<br>नये राग को नूतन स्वर दो<br>भाषा को नूतन अक्षर दो<br>युग जाति भेद की नयी मूर्ति, धर्म-रचना वेश की काले गोरे रंग-द्वेष की ज्वालाओं से जलते जग में<br>इतने मौलिक बनो शीतल बहो कि जितना स्वयं सृजन मलय पवन है॥<br><br>
लो अतीत नये हाथ से उतना ही जितना पोषक है<br>जीर्ण-शीर्ण , वर्तमान का मोह मृत्यु का ही द्योतक है<br>रूप सँवारो तोड़ो बन्धन, रुके न चिन्तन<br>नयी तूलिका से चित्रों के रंग उभारो गति, जीवन का सत्य चिरन्तन<br>नये राग को नूतन स्वर दो धारा के शाश्वत प्रवाह भाषा को नूतन अक्षर दो युग की नयी मूर्ति-रचना में<br>इतने गतिमय मौलिक बनो कि जितना परिवर्तन है।<br><br>स्वयं सृजन है॥
लो अतीत से उतना ही जितना पोषक है जीर्ण-शीर्ण का मोह मृत्यु का ही द्योतक है तोड़ो बन्धन, रुके न चिन्तन गति, जीवन का सत्य चिरन्तन धारा के शाश्वत प्रवाह में इतने गतिमय बनो कि जितना परिवर्तन है।  चाह रहे हम इस धरती को स्वर्ग बनाना<br>अगर कहीं हो स्वर्ग, उसे धरती पर लाना<br>सूरज, चाँद, चाँदनी, तारे<br>सब हैं प्रतिपल साथ हमारे<br>दो कुरूप को रूप सलोना<br>इतने सुन्दर बनो कि जितना आकर्षण है॥ <br><br/poem>
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