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काश्मीर / रामनरेश त्रिपाठी

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काशमीर देखा, सब बूझ लिया लेखा
:यदि स्वर्ग है यहीं तो फिर कौन-सा नरक है॥
:::(३)
श्रीनगर देखा डल और कई बल देखे
:खीर की भवानी के भी कर लिए दर्शन।
जाकर पहलगाँव पंद्रह दिवस काटे
:ठाँव-ठाँव घुच्ची२ खोद-खोद बहलाए मन॥
गुलमर्ग आए यहाँ बैठे हैं बिछाए खाट
:एक ही कमी से चित लगता न एक छन।
काशमीर आए, नारी साथ नहीं लाए
:यहाँ आकर अनारी ऐसे घूमते हैं बन-बन॥
:::(४)
ओढ़ना तुषार जैसा तकिया तुहिन जैसा
:हिम-सा बिछौना देख बुद्धि चकराती है।
घुटने चिपक जाते कान के निकट जाके
:बरफ की मारी पड़ी देह थहराती है॥
इंद्रियों का साथ छोड़ मन भाग जाता कहीं
:ऐसी कड़ी शीत गुलमर्ग में सताती है।
और आग की तो कौन चरचा चलावै, यहाँ
:ठंढ से विरह की भी आग बुझ जाती है॥
:::(५)
मोटर का भोंपू सुन थाली छोड़ भागते हैं
:राम से अधिक ध्यान डाक में लगाते हैं।
प्रेम-पत्र पाते हैं तो छाती से लगाते और
:कोने में लुकाते पढ़-पढ़ मुसकाते हैं॥
पत्र जो न पाते वे हैं बहुत लजाते और
:दूसरों के पत्र बाँचने को ललचाते हैं।
फीके और नीके मुँह विरही जनों के रोज
:डाक आने बाद देखने को मिल जाते हैं॥
:::(६)
कब मुँदती है और कब खुलती है आँख
:जान पड़ता ही नहीं जागते कि सोते हैं।
खाट पर पड़े-पड़े टुक-टुक ताकते हैं
:कौन जाने रात और दिन कब होते हैं॥
चाहते हैं कुछ बात और ही निकलती है
:विरह की पीर हाय! कैसे लोग ढोते हैं।
काशमीर आए यहाँ देखते हैं चारों ओर
:झरने के मिस ये पहाड़ खड़े रोते हैं॥
:::(७)
रोबदार चेहरा खिज़ाबदार मूँछ और
:आँखें चतुराई भरी कान बहुश्रुत हैं।
बात पूछने से सीधा उत्तर कभी न देते
:पर मुँह देख-देख हँसते बहुत हैं॥
बहरे नहीं हैं, पर गहरे बड़े हैं,
:मनमोहने की तरकीब जानते अयुत हैं।
काशमीर आवे तब भूल नहीं जावे
:यहाँ लालाजी३ भी देखने की चीज अद्भुत हैं॥
 
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१ ये कवित्त सन १९२९ में काशमीर में साथियों के मनोविनोद के लिए लिखे गए थे
२ गुल्ली डंडा के खेल में जमीन में खोदा हुआ छोटा गढ्ढा
३ श्रीनगरके एक व्यापारी सज्जन
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