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किसलिए रहे अब ये शरीर, ये अनाथमन किसलिए रहे,
धरती को मैं किसलिए सहूंसहूँ, धरती मुझको किसलिए सहे।तू कहां कहाँ खो गई वैदेही, वैदेही तू खो गई कहांकहाँ,मुरझे राजीव नयन बोले, कांपी काँपी सरयू, सरयू कांपीकाँपी,
देवत्व हुआ लो पूर्णकाम, नीली माटी निष्काम हुई,
इस स्नेहहीन देह के लिए, अब सांससाँस-सांस साँस संग्राम हुई।
ये राजमुकुट, ये सिंहासन, ये दिग्विजयी वैभव अपार,
ये प्रियाहीन जीवन मेरा, सामने नदी की अगम धार,
फिर ऐसी शाम ढले न ढले।
ओ खंडित प्रणयबंध मेरे, किस ठौर कहां तुझको जोडूंजोडूँ,कब तक पहनूं पहनूँ ये मौन धैर्य, बोलूं बोलूँ भी तो किससे बोलूंबोलूँ,सिमटे अब ये लीला सिमटे, भीतर-भीतर गूंजा गूँजा भर था,छप से पानी में पांव पाँव पड़ा, कमलों से लिपट गई सरयू,फिर लहरों पर वाटिका खिली, रतिमुख सखियांसखियाँ, नतमुख सीता,
सम्मोहित मेघबरन तड़पे, पानी घुटनों-घुटनों आया,
आया घुटनों-घुटनों पानी। फिर धुआंधुआँ-धुआं धुआँ फिर अंधियाराअँधियारा,
लहरों-लहरों, धारा-धारा, व्याकुलता फिर पारा-पारा।
फिर एक हिरन-सी किरन देह, दौड़ती चली आगे-आगे,
पानी लो नाभि-नाभि आया, आया लो नाभि-नाभि पानी,
जल में तम, तम में जल बहता, ठहरो बस और नहीं कहता,
जल में कोई जीवित दहता, फिर एक तपस्विनी शांत सौम्य,
उन्माद नीर चीरने लगा, पानी छाती-छाती आया,
आया छाती-छाती पानी।