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विदेशिनी-3 / कुमार अनुपम

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कि हम साथ हैं और बहुत पास
भूले ही रहे
 
किसी ऐसे सच का झूठ था यह बहुत सम्पूर्ण सरीखा
और जीवित साक्षात्
जैसे संसार
में दो जोड़ी आँख
और उनका स्वप्न
 
फिर हमने साथ-साथ कुछ चखा
शायद चाँदनी की सिवैयाँ
और स्वाद पर जमकर बहस की
 
यह वही समय था
जब बहुत सारा देशकाल स्थगित था
शुभ था हर ओर
तब तक अशुभ जैसा
न तो जन्मा था कोई शब्द न उसकी गूँज ही
 
हम पत्तियों में हरियाली की तरह दुबके रहे
पोसते हुए अंग-प्रत्यंग
हमसे फूटती रहीं नई कोंपलें
और देखते ही देखते
हम एक पेड़ थे भरपूर
किन्तु फिर भी
हमने फल को अगोरा उम्मीद भर
और हवा के तमाचे सहे साथ-साथ
 
हम टूटे
और अपनी धुन पर तैरते हुए
गिरे जहाँ
योजन भर रेत थी वहाँ
हमारे होने के निशान
अभी हैं
और उड़ाएगी हमें जहाँ जिधर हवा
ताज़ा कई निशान बनेंगे वहाँ उधर...
 
सम्प्रति हम जहाँ खड़े थे साथ-साथ
किन्हीं किनारों की तरह
एक नदी
हमारे बीचोबीच से गुज़र गई थी
 
अब वहाँ सन्देह की रेत उड़ती थी योजन भर
जिस पर
हमारी छायाएँ ही
आलिंगन करती थीं और साथ थीं इतना
कि घरेलू लगती थीं ।
</poem>
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