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|रचनाकार=राजेश चड्ढा
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<Poem>उतरी होटों से आस लगती है
तिश्नग़ी अब लिबास लगती है

बहते पानी को क्या छुआ मैने
अब नदी भी उदास लगती है

जिस्म तो आ गया है साहिल पे
डूबती सांस - सांस लगती है

आंख में ख़्वाब भी है गीला सा
इक नमी आस - पास लगती है

मैं समंदर हूं और मुझको भी
इक नदी भर के प्यास लगती है
</Poem>
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