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|रचनाकार=राणा प्रताप सिंह
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<poem>भूख की चौखट पे आकर कुछ निवाले रह गए
फिर से अंधियारे की ज़द में कुछ उजाले रह गए
आपकी ताक़त का अंदाजा इसी से लग गया
इस दफे भी आप ही कुर्सी संभाले रह गए

कोशिशें कीं लाख पर फिर भी छुपा ना पाए तुम
चंद घेरे आँख के नीचे जो काले रह गए

जब से मंजिल पाई है होता नहीं है दर्द भी
देते हैं आनंद जो पाओं में छाले रह गए

जम गए आंसू, चुका आक्रोश, सिसकी दब गई
इस पुराने घर में बस चुप्पी के जाले रह गये

अब डुबा दे या कि पहुंचा दे मुझे उस पार तू
हम तो सब कुछ भूलकर तेरे हवाले रह गए

उनसे बढ़कर इस जहाँ में है नहीं कोई धनी
अपने पुरखों की विरासत जो संभाले रह गए
</poem>