श्रीनन्द जी आनन्दित होकर व्रजरानी को पुकार रहे हैं -` दही का मटका एक ओर रख दो। झटपट आकर पुत्र का मुख देखो।' लेकिन श्रीयशोदा जी मथानी लिये दधि-मन्थन कर रही हैं, घर में (दही मथने के) घरघराहट का शब्द हो रहा है, स्थान-स्थान पर चहल-पहल हो रही है, इसलिए व्रजरानी श्रीनन्द जी की पुकार कानों से सुन नहीं पातीं। लेकिन जब उन्होंने पुकार सुनी तो यह समझकर कि (कन्हाई पलने से) गिर पड़ा है, झपटकर दौड़ पड़ीं; किंतु श्रीनन्द जी का हँसी से खिला मुख देखकर उन्हें धैर्य हुआ और हृदय की धड़कन रुकी । (पास आकर) श्यामसुन्दर को उलटे पड़े देख वहाँ छबिकी छबि की लहर बढ़ गयी । सूरदास जी कहते हैं -प्रभु (सीधे होने के लिये) कभी हाथों को पलँगपर पलँग पर टेक रहे थे और कभी पाटी पर टेक रहे थे ।