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Kavita Kosh से
ठोस घुटन आसपास छा गई
कड़वाहट नज़रों तक आ गई
तेज़ाबी सिंधु में खटास किकी
झागिया हिलोर हुई ज़िंदगी
चीख -करहों कराहों में डूबे नगर
ले आए अपराधों कि लहर
दिन - पर- दिन मन ही मन मैले हुए
क्या नई -निकोर हुई ज़िंदगी
नाखूनों ने नंगे तन छुए
दाँत और ज़्यादा पेन पैने हुए पिछड़े हुए है हैं खूनी भेड़िए
खुद आदम- खोर हुई ज़िंदगी
कैसी मुँहज़ोर हुई ज़िंदगी
सुकराती आग नही नहीं प्यास में
रह गया 'निराला' इतिहास में
चाँदी को सॅंटी संटी खाती गई
साहू का ढोर हुई ज़िंदगी