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वो नूर जो ज़ुल्मत से जुदा हो नहीं सकता
जलते हुए सूरज में कभी खो नहीं सकता
 
खोया हुआ हूँ अपने ख़यालात में, मुझ को
दुनिया के नज़ारों का फ़सूँ खो नहीं सकता
 
ईमान की ताईद करेगा कोई काफ़िर
हक़ बात कहेगा वो यक़ीं हो नहीं सकता
 
पत्थर को ख़ुदा जान के हम पूज रहे हैं
पत्थर तो कभी अपना ख़ुदा हो नहीं सकता
 
तूफ़ान सिमट जाते पिघल जाते हैं पत्थर
हिम्मत हो जवाँ अपनी तो क्या हो नहीं सकता
 
मैं गर्द हूँ सहरा ए मुहब्बत की, मुझे भी
बे वक़्त उड़ा देगी हवा हो नहीं सकता
 
रहमत तो उसी बन्दे पे होती है ख़ुदा की
अश्कों से जो दामान गुनाह धो नहीं सकता
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