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जसुमति मन अभिलाष करै / सूरदास

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श्रीयशोदाजी श्रीयशोदा जी मनमें अभिलाषा करती हैं -`मेरे लाल कब घुटनोंके घुटनों के बल सरकने लगेगा । कब पृथ्वीपर पृथ्वी पर वह दो पद रखेगा । कब मैं उसके दूधके दूध के दौ दाँत देखूँगी । कब उसके मुखसे मुख से तोतली बोली निकलने लगेगी । कब व्रजराजको व्रजराज को `बाबा' कहकर बुलावेगा, कब मुझे बार-बार `मैया-मैया' कहेगा । कब मोहन मेरा अञ्चल पकड़कर चाहे जो कुछ कहकर (अटपटी-माँगें करता) मुझसे झगड़ा करेगा । कब कुछ थोड़ा-थोड़ा खाने लगेगा । कब अपने हाथसे मुखमें हाथ से मुख में ग्रास डालेगा । कब हँसकर मुझसे बातें करेगा, जिस शोभासे शोभा से दुःखका हरण कर लिया करेगा।' (इसप्रकार इस प्रकार अभिलाषा करती माता) श्यामसुन्दरको श्यामसुन्दर को अकेले आँगनमें आँगन में छोड़कर कुछ कामसे काम से स्वयं घरमें घर में चली गयी । इसी बीचमैं बीच मैं एक अंधड़ उठा, उसमें इतनी गर्जना हो रही थी कि पूरा आकाश घहरा रहा (गूँज रहा) था । सूरदासजी सूरदास जी कहते हैं कि व्रजके व्रज के लोग जो जहाँ थे, वहीं उस ध्वनिको ध्वनि को सुनते ही अत्यन्त डर गये ।