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सूर हरि की निरखि सोभा, निमिष तजत न मात ॥<br><br>
मोहन माखन काते हुए खीझते जा रहे हैं । नेत्र लाल हो रहे हैं, भौंहे तिरछी हैं, बार-बार जम्हाई लेते हैं । कभी (नूपुरोंकोनूपुरों को) रुनझुन करते घुटनोंसे घुटनों से चलते हैं, शरीर धूलिसे धूलि से धूसर हो रहा है, कभी झुककर अपनी अलकें खींचते हैं, जिससे नेत्रोंमें नेत्रों में आँसू भर आते हैं, कभी तोतली वाणीसे वाणी से कुछ कहने लगते हैं, कभी बाबाको बाबा को बुलाते हैं । सूरदासजीकहतेहैं सूरदास जी कहते हैं कि श्रीहरिकी श्रीहरि की यह शोभा देखकर माता पलकें भी नहीं डालतीं । (अपलक देख रही हैं) (अपलक देख रही हैं ।)