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कृपा भई जो भक्तिहिं पावै ॥<br><br>
भावार्थ :--श्यामसुन्दर ! बालगोविन्द! तुमपर तुम पर बार-बार बलिहारी । तुम अत्यन्त सुखदायी तथा पूर्णपरमानन्दरूप पूर्ण परमानन्दरूप हो । (देखोतोदेखो तो) पूरी पृथ्वी (वामनावतारमेंवामनावतार में) जिसके तीन पद भी नहीं हुई, उसीको उसी को मैया यशोदा चलना सिखला रही हैं, जिसके देखने से काल भी भयभीत हो जाता है, व्रजरानीने हाथमें व्रजरानी ने हाथ में छड़ी लेकर उसे दिखलाया (डाँटा) जिसका नाम ही करोड़ों भ्रमोंको भ्रमों को दूर कर देता है, (नजर न लगे, इसलिये) मैया उसपर उस पर राई-नमक उतारती हैं । यह सेवकसूरदास सेवक सूरदास आपके गुणोंका गुणों का कैसे वर्णन करे ? आपकी भक्ति मुझे यदि मिल जाय तो यह आपकी(महती) कृपा हुई समझूँगा । शिव, सनकादि ऋषि शुकदेवादि परमहंस तथा ब्रह्मादि देवता ढूँढ़कर भी जिनका (जिनकी महिमाकामहिमा का) पार नहीं पाते,मैया उन्हींको उन्हीं को गोदमें लेकर हिलाती (झुलाती) है और तोतली वाणी बुलवाती है । देवता, मनुष्य, किन्नर तथा मुनिगण- सब (इस लीलाको लीला को देखकर) मुग्ध हो रहे हैं, सूर्य (लीला-दर्शनसे मुग्ध होकर) अपने रथको रथ को आगे नहीं चलाते हैं, व्रजकी व्रज की सभी युवतियाँ (इस लीलापर) मुग्ध हो रही हैं । सूरदास (इन्हीं श्यामकाश्याम का) सुयश गा रहा है ।