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{{KKRachna
|रचनाकार=अवनीश सिंह चौहान
|संग्रह=
}}
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<Poem>
सोच रहा
चुप बैठा धुनिया
भीड़-भाड़ वह-
चहल-पहल वह-
बंद द्वार का
एक महल वह
ढोल मढ़ी-सी
लगती दुनिया
मेहनत के मुंह
बंधा मुसीका
घुटता जाता
गला खुशी का
ताड़ रहा है
सब कुछ गुनिया
फैला भीतर तक
सन्नाटा
अंधियारों ने
सब कुछ पता
कहाँ -कहाँ से
टूटी पुनिया
</poem>
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सोच रहा
चुप बैठा धुनिया
भीड़-भाड़ वह-
चहल-पहल वह-
बंद द्वार का
एक महल वह
ढोल मढ़ी-सी
लगती दुनिया
मेहनत के मुंह
बंधा मुसीका
घुटता जाता
गला खुशी का
ताड़ रहा है
सब कुछ गुनिया
फैला भीतर तक
सन्नाटा
अंधियारों ने
सब कुछ पता
कहाँ -कहाँ से
टूटी पुनिया
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