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परम्परा / वीरेन डंगवाल

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|संग्रह=दुष्चक्र में सृष्टा / वीरेन डंगवाल
}}
    <poem>पहले उस ने हमारी स्मृति पर डंडे बरसाए<br>और कहा - 'असल में यह तुम्हारी स्मृति है'<br>फिर उस ने हमारे विवेक को सुन्न किया<br>और कहा - 'अब जा कर हुए तुम विवेकवान'<br>फिर उस ने हमारी आंखों पर पट्टी बांधी<br>और कहा - 'चलो अब उपनिषद पढो'<br>फिर उस ने अपनी सजी हुई डोंगी हमारे रक्त की<br>नदी में उतार दी<br>
और कहा - 'अब अपनी तो यही है परम्परा'।
</poem>
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