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माँ की तस्वीर / मंगलेश डबराल

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|संग्रह=हम जो देखते हैं / मंगलेश डबराल
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 <poem>
घर में माँ की कोई तस्वीर नहीं
 
जब भी तस्वीर खिंचवाने का मौक़ा आता है
 
माँ घर में खोई हुई किसी चीज़ को ढूंढ रही होती है
 
या लकड़ी घास और पानी लेने गई होती है
 
जंगल में उसे एक बार बाघ भी मिला
 
पर वह डरी नहीं
 
उसने बाघ को भगाया घास काटी घर आकर
 
आग जलाई और सबके लिए खाना पकाया
 
मैं कभी घास या लकड़ी लाने जंगल नहीं गया
 
कभी आग नहीं जलाई
 
मैं अक्सर एक ज़माने से चली आ रही
 
पुरानी नक़्क़ाशीदार कुर्सी पर बैठा रहा
 
जिस पर बैठकर तस्वीरें खिंचवाई जाती हैं
 
माँ के चहरे पर मुझे दिखाई देती है
 
एक जंगल की तस्वीर लकड़ी घास और
 
पानी की तस्वीर खोई हुई एक चीज़ की तस्वीर
 
(1990-1991 में रचित)
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