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अलबम / पवन करण

152 bytes added, 20:42, 22 अप्रैल 2012
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यह कविता पवन करण की ’बूढ़ी बेरिया’ कविता का ही नया रूप है।
 
एक अकेली वीरान औरत के पास
जिसे हम बूढ़ी माँ कहकर बुलाते हैं
उसके घर की तरह पुरानी, मैली
और लगातार फटती जा रही है एलबमअलबम
जिसे वह यूँ ही किसी को नहीं दिखाती
रखती है सन्दूक में सँभालकर
मगर जब भी एलबम अलबम खुलती है
वह निर्जन औरत खुलती है
खुलता है उसका भयावह सूनापन
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