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|रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध
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<poem>
भूल-ग़लती
आज बैठी है ज़िरहबख्तर पहनकर
तख्त पर दिल के,
चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक,
आँखें चिलकती हैं नुकीले तेज पत्थर सी,
खड़ी हैं सिर झुकाए
::सब कतारें
:::बेजुबाँ बेबस सलाम में,
अनगिनत खम्भों व मेहराबों-थमे
::::दरबारे आम में।
इतने में हमीं में से <br> अजीब कराह सा कोई निकल भागा<br>भरे दरबारे-आम में मैं भी<br>सँभल जागा<br>कतारों में खड़े खुदगर्ज-बा-हथियार<br>बख्तरबंद समझौते <br> सहमकर, रह गए,<br>दिल में अलग जबड़ा, अलग दाढ़ी लिए,<br>दुमुँहेपन के सौ तज़ुर्बों की बुज़ुर्गी से भरे,<br>दढ़ियल सिपहसालार संजीदा<br>::::सहमकर रह गये !!<br><br>
लेकिन, उधर उस ओर,<br>कोई, बुर्ज़ के उस तरफ़ जा पहुँचा,<br>अँधेरी घाटियों के गोल टीलों, घने पेड़ों में<br>कहीं पर खो गया,<br>महसूस होता है कि यह बेनाम<br>बेमालूम दर्रों के इलाक़े में<br>( सचाई के सुनहले तेज़ अक्सों के धुँधलके में)<br>मुहैया कर रहा लश्कर;<br>हमारी हार का बदला चुकाने आयगा<br>संकल्प-धर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर,<br>हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर<br>प्रकट होकर विकट हो जायगा !! <brpoem><br>( कविता संग्रह, "चाँद का मुँह टेढ़ा है से" )