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{{KKRachna
|रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध
|संग्रह=चांद का मुँह टेढ़ा है / गजानन माधव मुक्तिबोध
}}
[[Category:लम्बी कविता]]
|सारणी=अंधेरे में / गजानन माधव मुक्तिबोध
}}
<poem>
समझ न पाया कि चल रहा स्वप्न या
:::::जाग्रति शुरू है।
दिया जल रहा है,
पीतालोक-प्रसार में काल चल रहा है,
आस-पास फैली हुई जग-आकृतियाँ
लगती हैं छपी हुई जड़ चित्रकृतियों-सी
अलग व दूर-दूर
निर्जीव!!
यह सिविल लाइन्स है। मैं अपने कमरे में
यहाँ पड़ा हुआ हूँ
आँखें खुली हुई हैं,
पीटे गये बालक-सा मार खाया चेहरा
उदास इकहरा,
स्लेट-पट्टी पर खींची गयी तसवीर
भूत-जैसी आकृति--
क्या वह मैं हूँ
मैं हूँ?
समझ न पाया कि चल रहा स्वप्न या<br>:::::जाग्रति शुरू है।<br>दिया जल रहा हैरात के दो हैं,<br>पीतालोकदूर-प्रसार दूर जंगल में काल चल रहा हैसियारों का हो-हो,<br>आसपास-पास फैली आती हुई जग-आकृतियाँ<br>घहराती गूँजती लगती हैं छपी हुई जड़ चित्रकृतियोंकिसी रेल-सी<br>अलग व दूर-दूर<br>निर्जीवगाड़ी के पहियों की आवाज़!!<br>यह सिविल लाइन्स है। मैं अपने कमरे में<br>किसी अनपेक्षित यहाँ पड़ा हुआ हूँ<br>असंभव घटना का भयानक संदेह, आँखें खुली हुई हैंअचेतन प्रतीक्षा,<br>पीटे गये बालककहीं कोई रेल-सा मार खाया चेहरा<br>एक्सीडेण्ट न हो जाय। उदास इकहरा,<br>चिन्ता के गणित अंक आसमानी-स्लेट-पट्टी पर खींची गयी तसवीर<br>चमकते भूतखिड़की से दीखते। .......................... हाय! हाय! तॉल्सतॉय कैसे मुझे दीख गये सितारों के बीच-जैसी आकृति--<br>बीच क्या वह मैं हूँ<br>घूमते व रुकते मैं हूँ?<br><br>पृथ्वी को देखते।
रात के दो हैं,<br>दूरशायद तॉल्सतॉय-दूर जंगल में सियारों का हो-हो,<br>नुमा पास-पास आती हुई घहराती गूँजती<br>कोई वह आदमी किसी रेल-गाड़ी के पहियों की आवाज़!!<br>और है, मेरे किसी अनपेक्षित<br>भीतरी धागे का आख़िरी छोर वह असंभव घटना अनलिखे मेरे उपन्यास का भयानक संदेह,<br>अचेतन प्रतीक्षा,<br>केन्द्रीय संवेदन कहीं कोई रेलदबी हाय-एक्सीडेण्ट न हो जाय।<br>चिन्ता के गणित अंक<br>आसमानीहाय-स्लेट-पट्टी पर चमकते<br>नुमा। खिड़की से दीखते।<br>..........................<br>हाय! हाय! शायद, तॉल्सतॉय<br>कैसे मुझे दीख गये<br>सितारों के बीच-बीच<br>घूमते व रुकते<br>पृथ्वी को देखते।<br><br>नुमा।
शायद तॉल्सतॉयप्रोसेशन? निस्तब्ध नगर के मध्य-नुमा<br>रात्रि-अँधेरे में सुनसान कोई वह आदमी<br>किसी दूर बैण्ड की दबी हुई क्रमागत तान-धुन, और हैमन्द-तार उच्च-निम्न स्वर-स्वप्न,<br>मेरे किसी भीतरी धागे का आख़िरी छोर वह<br>अनलिखे मेरे उपन्यास का<br>केन्द्रीय संवेदन<br>दबी हायउदास-हायउदास ध्वनि-नुमा।<br>तरंगें हैं गम्भीर, शायददीर्घ लहरियाँ!! गैलरी में जाता हूँ, तॉल्सतॉयदेखता हूँ रास्ता वह कोलतार-नुमा।<br><br>पथ अथवा मरी हुई खिंची हुई कोई काली जिह्वा बिजली के द्युतिमान दिये या मरे हुए दाँतों का चमकदार नमूना!!
प्रोसेशन?<br>किन्तु दूर सड़क के उस छोर निस्तब्ध नगर शीत-भरे थर्राते तारों के मध्य-रात्रि-अँधेरे अँधियाले तल में सुनसान<br>किसी दूर बैण्ड की दबी हुई क्रमागत ताननील तेज-धुन,<br>उद्भास मन्दपास-तार उच्चपास पास-निम्न पास आ रहा इस ओर! दबी हुई गम्भीर स्वर-स्वप्न-तरंगें,<br>उदासशत-उदास ध्वनि-तरंगें हैं गम्भीर,<br>संगम-संगीत दीर्घ लहरियाँ!!<br>गैलरी में जाता हूँ, देखता हूँ रास्ता<br>वह कोलतारउदास तान-पथ अथवा<br>मरी हुई खिंची हुई कोई काली जिह्वा<br>बिजली के द्युतिमान दिये या<br>धुन मरे हुए दाँतों का चमकदार नमूनासमीप आ रहा!!<br><br>
किन्तु दूर सड़क के उस छोर<br>और, अब शीतगैस-भरे थर्राते तारों के अँधियाले तल में<br>नील तेजलाइट-उद्भास<br>पाँतों की बिन्दुएँ छिटकीं, पासबीचों-पास पास-पास<br>बीच उनके आ रहा इस ओर!<br>दबी हुई गम्भीर स्वरसाँवले जुलूस-स्वप्नसा क्या-तरंगें,<br>शत-ध्वनि-संगम-संगीत<br>उदास तान-धुन<br>समीप आ रहाकुछ दीखता!!<br><br>
और, अब<br>गैस-लाइट-पाँतों की बिन्दुएँ छिटकींनिलाई में रँगे हुए अपार्थिव चेहरे,<br>बीचोंबैण्ड-बीच दल, उनके<br>पीछे काले-काले बलवान् घोड़ों का जत्था दीखता, घना व डरावना अवचेतन ही साँवले जुलूस-सा में चलता। क्याशोभा-कुछ दीखता!!<br><br>यात्रा किसी मृत्यु दल की?
और अब<br>अजीब!! दोनों ओर, नीली गैस-लाइट-निलाई में रँगे हुए अपार्थिव चेहरे,<br>पाँत बैण्ड-दलरही जल,<br>रही जल। उनके पीछे काले-काले बलवान् घोड़ों का जत्था<br>नींद में खोये हुए शहर की गहन अवचेतना में दीखताहलचल,<br>घना व डरावना अवचेतन ही<br>जुलूस पाताली तल में चलता।<br>क्या शोभा-यात्रा <br>चमकदार साँपों की उड़ती हुई लगातार किसी मृत्यु दल लकीरों की?<br><br>वारदात!! सब सोये हुए हैं। लेकिन, मैं जाग रहा, देख रहा रोमांचकारी वह जादुई करामात!!
अजीबविचित्र प्रोसेशन, गम्भीर क्वीक मार्च.... कलाबत्तूवाला काला ज़रीदार ड्रेस पहने चमकदार बैण्ड-दल-- अस्थि-रूप, यकृत-स्वरूप, उदर-आकृति आँतों के जाल से, बाजे वे दमकते हैं भयंकर गम्भीर गीत-स्वप्न-तरंगें उभारते रहते, ध्वनियों के आवर्त मँडराते पथ पर। बैण्ड के लोगों के चेहरे मिलते हैं मेरे देखे हुओं-से लगता है उनमें कई प्रतिष्ठित पत्रकार इसी नगर के!!<br>दोनों ओर, नीली गैसबड़े-लाइटबड़े नाम अरे कैसे शामिल हो गये इस बैण्ड-पाँत<br>दल में! रही जलउनके पीछे चल रहा संगीत नोकों का चमकता जंगल, चल रही जल।<br>पदचाप, ताल-बद्ध दीर्घ पाँत नींद में खोये टेंक-दल, मोर्टार, ऑर्टिलरी, सन्नद्ध, धीरे-धीरे बढ़ रहा जुलूस भयावना, सैनिकों के पथराये चेहरे चिढ़े हुए शहर की गहन अवचेतना , झुलसे हुए, बिगड़े हुए गहरे! शायद, मैंने उन्हे पहले भी तो कहीं देखा था। शायद, उनमें कई परिचित!! उनके पीछे यह क्या!! कैवेलरी! काले-काले घोड़ों पर ख़ाकी मिलिट्री ड्रेस, चेहरे का आधा भाग सिन्दूरी-गेरुआ आधा भाग कोलतारी भैरव, आबदार!! कन्धे से कमर तक कारतूसी बेल्ट है तिरछा। कमर में<br>, चमड़े के कवर में पिस्तोल, हलचलरोष-भरी एकाग्रदृष्टि में धार है, पाताली तल कर्नल, बिग्रेडियर, जनरल, मॉर्शल कई और सेनापति सेनाध्यक्ष चेहरे वे मेरे जाने-बूझे से लगते, उनके चित्र समाचारपत्रों में<br>छपे थे, चमकदार साँपों की उड़ती हुई लगातार<br>उनके लेख देखे थे, लकीरों की वारदातयहाँ तक कि कविताएँ पढ़ी थीं भई वाह! उनमें कई प्रकाण्ड आलोचक, विचारक जगमगाते कवि-गण मन्त्री भी, उद्योगपति और विद्वान यहाँ तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात डोमाजी उस्ताद बनता है बलवन हाय, हाय!!<br>सब सोये यहाँ ये दीखते हैं भूत-पिशाच-काय। भीतर का राक्षसी स्वार्थ अब साफ़ उभर आया है, छिपे हुए हैं।<br>उद्देश्य लेकिनयहाँ निखर आये हैं, मैं जाग रहायह शोभायात्रा है किसी मृत-दल की। विचारों की फिरकी सिर में घूमती है इतने में प्रोसेशन में से कुछ मेरी ओर आँखें उठीं मेरी ओर-भर हृदय में मानो कि संगीन नोंकें ही घुस पड़ीं बर्बर, सड़क पर उठ खड़ा हो गया कोई शोर-- "मारो गोली, दाग़ो स्साले को एकदम दुनिया की नज़रों से हटकर छिपे तरीक़े से हम जा रहे थे कि आधीरात--अँधेरे में उसने देख रहा<br>लिया हमको रोमांचकारी व जान गया वह जादुई करामातसब मार डालो, उसको खत्म करो एकदम" रास्ते पर भाग-दौड़ थका-पेल!! गैलरी से भागा मैं पसीने से शराबोर!!<br><br>
विचित्र प्रोसेशन,<br>गम्भीर क्वीक मार्च....<br>कलाबत्तूवाला काला ज़रीदार ड्रेस पहने<br>चमकदार बैण्डएकाएक टूट गया स्वप्न व छिन्न-दल--<br>भिन्न हो गये अस्थि-रूप, यकृत-स्वरूप, उदर-आकृति<br>सब चित्र आँतों के जाल जागते में फिर से, बाजे वे दमकते हैं भयंकर<br>गम्भीर गीत-याद आने लगा वह स्वप्न-तरंगें<br>उभारते रहते,<br>ध्वनियों के आवर्त मँडराते पथ पर।<br>बैण्ड के लोगों के चेहरे<br>मिलते हैं मेरे देखे हुओं-फिर से<br>लगता है उनमें कई प्रतिष्ठित पत्रकार<br>इसी नगर के!!<br>बड़े-बड़े नाम अरे कैसे शामिल हो गये इस बैण्ड-दल याद आने लगे अँधेरे में!<br>उनके पीछे चल रहा<br>संगीत नोकों का चमकता जंगलचेहरे,<br>चल रही पदचापऔर, ताल-बद्ध दीर्घ पाँत<br>तब मुझे प्रतीत हुआ भयानक टेंक-दल, मोर्टार, ऑर्टिलरी, सन्नद्ध,<br>गहन मृतात्माएँ इसी नगर की धीरे-धीरे बढ़ रहा हर रात जुलूस भयावना,<br>सैनिकों के पथराये चेहरे<br>चिढ़े हुए, झुलसे हुए, बिगड़े हुए गहरे!<br>शायद, मैंने उन्हे पहले भी तो कहीं देखा था।<br>शायद, उनमें कई परिचित!!<br>उनके पीछे यह क्या!!<br>कैवेलरी!<br>काले-काले घोड़ों पर ख़ाकी मिलिट्री ड्रेस,<br>चेहरे का आधा भाग सिन्दूरी-गेरुआ<br>आधा भाग कोलतारी भैरव,<br>आबदार!!<br>कन्धे से कमर तक कारतूसी बेल्ट है तिरछा।<br>कमर मेंचलतीं, चमड़े के कवर में पिस्तोल,<br>रोष-भरी एकाग्रदृष्टि परन्तु दिन में धार है,<br>कर्नल, बिग्रेडियर, जनरल, मॉर्शल<br>कई और सेनापति सेनाध्यक्ष<br>चेहरे वे मेरे जाने-बूझे से लगते,<br>उनके चित्र समाचारपत्रों में छपे थे,<br>उनके लेख देखे थे,<br>यहाँ तक कि कविताएँ पढ़ी थीं<br>भई वाह!<br>उनमें कई प्रकाण्ड आलोचक, विचारक जगमगाते कवि-गण<br>मन्त्री भी, उद्योगपति और विद्वान<br>यहाँ तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात<br>डोमाजी उस्ताद<br>बनता है बलवन<br>हाय, हाय!!<br>यहाँ ये दीखते बैठती हैं भूत-पिशाच-काय।<br>मिलकर करती हुई षड्यंत्र भीतर का राक्षसी स्वार्थ अब<br>साफ़ उभर आया है,<br>छिपे हुए उद्देश्य<br>यहाँ निखर आये हैं,<br>यह शोभायात्रा है किसी मृतविभिन्न दफ़्तरों-दल की।<br>विचारों की फिरकी सिर में घूमती है<br>इतने में प्रोसेशन में से कुछ मेरी ओर<br>आँखें उठीं मेरी ओर-भर<br>हृदय में मानो कि संगीन नोंकें ही घुस पड़ीं बर्बरकार्यालयों,<br>सड़क पर उठ खड़ा हो गया कोई शोर--<br>"मारो गोली, दाग़ो स्साले को एकदम<br>दुनिया की नज़रों से हटकर<br>छिपे तरीक़े से <br>हम जा रहे थे कि<br>आधीरात--अँधेरे केन्द्रों में उसने<br>देख लिया हमको<br>व जान गया वह सब<br>मार डालो, उसको खत्म करो एकदम"<br>रास्ते पर भाग-दौड़ थका-पेल!!<br>गैलरी से भागा मैं पसीने से शराबोर!!<br><br>घरों में।
एकाएक टूट गया स्वप्न व छिन्न-भिन्न हो गये<br>सब चित्र<br>जागते में फिर से याद आने लगा वह स्वप्न,<br>फिर से याद आने लगे अँधेरे में चेहरे,<br>और, तब मुझे प्रतीत हुआ भयानक<br>गहन मृतात्माएँ इसी नगर की<br>हर रात जुलूस में चलतीं,<br>परन्तु दिन में<br>बैठती हैं मिलकर करती हुई षड्यंत्र<br>विभिन्न दफ़्तरों-कार्यालयों, केन्द्रों में, घरों में।<br><br> हाय, हाय! मैंने उन्हे दैख लिया नंगा,<br>इसकी मुझे और सज़ा मिलेगी। <br><br/poem>
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