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{{KKRachna
|रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध
|संग्रह=चांद का मुँह टेढ़ा है / गजानन माधव मुक्तिबोध
}}
[[Category:लम्बी कविता]]
|सारणी=अंधेरे में / गजानन माधव मुक्तिबोध
}}
<poem>
सीन बदलता है
सुनसान चौराहा साँवला फैला,
बीच में वीरान गेरूआ घण्टाघर,
ऊपर कत्थई बुज़र्ग गुम्बद,
साँवली हवाओं में काल टहलता है।
रात में पीले हैं चार घड़ी-चेहरे,
मिनिट के काँटों की चार अलग गतियाँ,
चार अलग कोण,
कि चार अलग संकेत
(मनस् में गतिमान् चार अलग मतियाँ)
खम्भों पर बिजली की गरदनें लटकीं,
शर्म से जलते हुए बल्बों के आस-पास
बेचैन ख़यालों के पंखों के कीड़े
उड़ते हैं गोल-गोल
मचल-मचलकर।
घण्टाघर तले ही
पंखों के टुकड़े व तिनके।
गुम्बद-विवर में बैठे हुए बूढ़े
असम्भव पक्षी
बहुत तेज़ नज़रों से देखते हैं सब ओर,
मानो कि इरादे
भयानक चमकते।
सुनसान चौराहा
बिखरी हैं गतियाँ, बिखरी है रफ़्तार,
गश्त में घूमती है कोई दुष्ट इच्छा।
भयानक सिपाही जाने किस थकी हुई झोंक में
अँधेरे में सुलगाता सिगरेट अचानक
ताँबे से चेहरे की ऐंठ झलकती।
पथरीली सलवट
दियासलाई की पल-भर लौ में
साँप-सी लगती।
पर उसके चेहरे का रंग बदलता है हर बार,
मानो अनपेक्षित कहीं न कुछ हो...
वह ताक रहा है--
संगीन नोंकों पर टिका हुआ
साँवला बन्दूक़-जत्था
गोल त्रिकोण एक बनाये खड़ा जो
चौक के बीच में!!
एक ओर
टैंकों का दस्ता भी खड़े-खड़े ऊँघता,
परन्तु अड़ा है!!
सीन बदलता है<br>सुनसान चौराहा साँवला फैलाभागता मैं दम छोड़,<br>बीच में वीरान गेरूआ घण्टाघरघूम गया कई मोड़ भागती है चप्पल, <br>चटपट आवाज़ ऊपर कत्थई बुज़र्ग गुम्बदचाँटों-सी पड़ती। पैरों के नीचे का कींच उछलकर चेहरे पर छाती पर, पड़ता है सहसा, <br>साँवली हवाओं में काल टहलता है।<br>ग्लानि की मितली। रात में पीले हैं चार घड़ीगलियों का गोल-गोल खोह अँधेरा चेहरेपर आँखों पर करता है हमला। अजीब उमस-बास गलियों का रुँधा हुआ उच्छवास भागता हूँ दम छोड़, घूम गया कई मोड़। धुँधले-से आकार कहीं-कहीं दीखते,<br>मिनिट भय के काँटों की चार अलग गतियाँ? या घर के? कह नहीं सकता आता है अकस्मात् कोलतार-रास्ता लम्बा व चौड़ा व स्याह व ठंडा,<br>चार अलग कोणबेचैन आँखें ये देखती हैं सब ओर। कहीं कोई नहीं है,<br>कि चार अलग संकेत<br>नहीं कहीं कोई भी। (मनस् श्याम आकाश में गतिमान् चार अलग मतियाँ)<br>खम्भों पर बिजली की गरदनें लटकीं,<br>संकेत-भाषा-सी तारों की आँखें शर्म से जलते हुए बल्बों के आसचमचमा रही हैं। मेरा दिल ढिबरी-पास<br>सा टिमटिमा रहा है। बेचैन ख़यालों कोई मुझे खींचता है रास्ते के पंखों के कीड़े<br>बीच ही। उड़ते हैं गोलजादू से बँधा हुआ चल पड़ा उस ओर। सपाट सूने में ऊँची-गोल<br>सी खड़ी जो मचलतिलक की पाषाण-मचलकर।<br>मूर्ति है निःसंग घण्टाघर तले ही<br>स्तब्ध जड़ीभूत... पंखों के टुकड़े व तिनके।<br>देखता हूँ उसको परन्तु, ज्यों ही मैं पास पहुँचता गुम्बदपाषाण-विवर में बैठे हुए बूढ़े<br>पीठिका हिलती-सी लगती असम्भव पक्षी<br>अरे, अरे यह क्या!! बहुत तेज़ नज़रों कण-कण काँप रहे जिनमें-से देखते हैं झरते नीले इलेक्ट्रान सब ओरगिर रही हैं चिनगियाँ नीली मूर्ति के तन से झरते हैं अंगार। मुस्कान पत्थरी होठों पर काँपी,<br>आँखों में बिजली के फूल सुलगते। इतने में यह क्या!! भव्य ललाट की नासिका में से बह रहा ख़ून न जाने कब से लाल-लाल गरमीला रक्त टपकता (ख़ून के धब्बों से भरा अँगरखा) मानो कि इरादे<br>अतिशय चिन्ता के कारण भयानक चमकते।<br>मस्तक-कोष ही फूट पड़े सहसा सुनसान चौराहा<br>मस्तक-रक्त ही बह उठा नासिका में से। बिखरी हाय, हाय, पितः पितः ओ, चिन्ता में इतने न उलझो हम अभी ज़िन्दा हैं गतियाँज़िन्दा, बिखरी चिन्ता क्या है रफ़्तार!! मैं उस पाषाण-मूर्ति के ठण्डे पैरों की छाती से बरबस चिपका रुआँसा-सा होता देह में तन गये करुणा के काँटे छाती पर,<br>सिर पर, बाँहों पर मेरे गश्त गिरती हैं नीली बिजली की चिनगियाँ रक्त टपकता है हृदय में मेरे आत्मा में बहता-सा लगता ख़ून का तालाब। इतने में छाती के भीतर ठक्-ठक् सिर में घूमती है धड़-धड़ !! कट रही हड्डी!! फ़िक्र जबरदस्त!! विवेक चलाता तीखा-सा रन्दा चल रहा बासूला छीले जा रहा मेरा निजत्व ही कोई दुष्ट इच्छा।<br>भयानक सिपाही जाने किस थकी हुई झोंक ज़िद कोई जाग उठी मेरे भी अन्दर हठ कोई बड़ा भारी उठ खड़ा हुआ है। इतने में<br>आसमान काँपा व धाँय-धाँय बन्दूक़ धड़ाका बिजली की रफ़्तार पैरों में घूम गयी। खोहों-सी गलियों के अँधेरे में सुलगाता सिगरेट अचानक<br>एक ओर ताँबे मैं थक बैठ गया, सोचने-विचारने। अँधेरे में डूबे मकानों के छप्परों के पार से चेहरे रोने की ऐंठ झलकती।<br>पतली-सी आवाज़ पथरीली सलवट<br>सूने में काँप रही काँप रही दूर तक दियासलाई कराहों की पललहरों में पाशव प्राकृत वेदना भयानक थरथरा रही है। मैं उसे सुनने का करता हूँ यत्न कि देखता क्या हूँ-भर लौ सामने मेरे सर्दी में<br>बोरे को ओढ़कर साँपकोई एक अपने हाथ-सी लगती।<br>पैर समेटे पर उसके चेहरे का रंग बदलता है हर बारकाँप रहा,<br>हिल रहा---वह मर जायगा। मानो अनपेक्षित कहीं न कुछ हो...<br>इतने में वह सिर खोलता है सहसा बाल बिखरते दीखते हैं कान कि फिर मुँह खोलता है, वह ताक कुछ बुदबुदा रहा है--<br>, संगीन नोंकों पर टिका हुआ<br>किन्तु मैं सुनता ही नहीं हूँ। साँवला बन्दूक़ध्यान से देखता हूँ-जत्था<br>-वह कोई परिचित गोल त्रिकोण एक बनाये खड़ा जो<br>जिसे खूब देखा था, निरखा था कई बार चौक के बीच में!!<br>पर पाया नहीं था। एक ओर <br>अरे हाँ, वह तो... टैंकों विचार उठते ही दब गये, सोचने का दस्ता भी खड़ेसाहस सब चला गया है। वह मुख-खड़े ऊँघता-अरे,<br>वह मुख, वे गाँधी जी!! परन्तु अड़ा हैइस तरह पंगु!!<br><br>आश्चर्य!! नहीं, नहीं वे जाँच-पड़ताल रूप बदलकर करते हैं चुपचाप। सुराग़रसी-सी कुछ।
भागता मैं दम छोड़,<br>घूम गया कई मोड़<br>भागती है चप्पल, चटपट आवाज़<br>चाँटों-सी पड़ती।<br>पैरों के नीचे का कींच उछलकर<br>चेहरे पर छाती पर, पड़ता है सहसा,<br>ग्लानि अँधेरे की मितली।<br>गलियों का गोल-गोल खोह अँधेरा<br>चेहरे पर आँखों पर करता है हमला।<br>अजीब उमस-बास<br>गलियों का रुँधा हुआ उच्छवास<br>भागता हूँ दम छोड़, <br>घूम गया कई मोड़।<br>धुँधले-से आकार कहीं-कहीं दीखते,<br>भय के? या घर के? कह नहीं सकता<br>आता है अकस्मात् कोलतार-रास्ता<br>लम्बा व चौड़ा व स्याह व ठंडा,<br>बेचैन आँखें ये देखती हैं सब ओर।<br>कहीं कोई नहीं है,<br>नहीं कहीं कोई भी।<br>श्याम आकाश स्याही में, संकेत-भाषा-सी तारों की आँखें<br>डूबे हुए देव को सम्मुख पाकर चमचमा रही हैं।<br>मेरा दिल ढिबरी-सा टिमटिमा रहा है।<br>कोई मुझे खींचता है रास्ते के बीच ही।<br>जादू से बँधा हुआ चल पड़ा उस ओर।<br>सपाट सूने में ऊँची-सी खड़ी जो<br>तिलक की पाषाण-मूर्ति है निःसंग<br>स्तब्ध जड़ीभूत...<br>देखता मैं अति दीन हो जाता हूँ उसको परन्तु, ज्यों ही मैं पास पहुँचता<br>पाषाण-पीठिका हिलती-सी लगती<br>अरे, अरे यह क्या!!<br>कण-कण काँप रहे जिनमें-से झरते<br>नीले इलेक्ट्रान<br>सब ओर गिर रही हैं चिनगियाँ नीली<br>मूर्ति के तन से झरते हैं अंगार।<br>मुस्कान पत्थरी होठों पर काँपी,<br>आँखों में बिजली के फूल सुलगते।<br>इतने में यह क्या!!<br>भव्य ललाट की नासिका में से<br>बह रहा ख़ून न जाने कब से<br>लाल-लाल गरमीला रक्त टपकता<br>(ख़ून के धब्बों से भरा अँगरखा)<br>मानो कि अतिशय चिन्ता के कारण<br>मस्तक-कोष ही फूट पड़े सहसा<br>मस्तक-रक्त ही बह उठा नासिका में से।<br>हाय, हाय, पितः पितः ओ,<br>चिन्ता में इतने न उलझो<br>हम अभी ज़िन्दा हैं ज़िन्दा,<br>चिन्ता क्या है!!<br>मैं उस पाषाण-मूर्ति के ठण्डे<br>पैरों की छाती से बरबस चिपका<br>रुआँसा-सा होता<br>देह में तन गये करुणा के काँटे<br>छाती पर, सिर पर, बाँहों पर मेरे<br>गिरती हैं नीली<br>बिजली की चिनगियाँ<br>रक्त टपकता है हृदय में मेरे<br>आत्मा में बहता-सा लगता<br>ख़ून का तालाब।<br>झटका इतने में छाती के भीतर ठक्-ठक्<br>सिर में कहता है धड़-धड़ !! कट रही हड्डी!!<br>फ़िक्र जबरदस्त!!<br>विवेक चलाता तीखा-सा रन्दा<br>चल रहा बासूला<br>छीले "भाग जा रहा मेरा निजत्व ही कोई<br>भयानक ज़िद कोई जाग उठी मेरे भी अन्दर<br>हठ कोई बड़ा भारी उठ खड़ा हुआ है।<br>इतने में आसमान काँपा व धाँय-धाँय<br>बन्दूक़ धड़ाका<br>बिजली की रफ़्तार पैरों में घूम गयी।<br>खोहों-सी गलियों के अँधेरे में एक ओर<br>मैं थक बैठ गया,<br>हट जा सोचने-विचारने।<br>अँधेरे में डूबे मकानों हम हैं गुज़र गये ज़माने के छप्परों के पार से<br>चेहरे रोने की पतली-सी आवाज़<br>सूने में काँप रही काँप रही दूर तक<br>कराहों की लहरों में पाशव प्राकृत<br>वेदना भयानक थरथरा रही है।<br>मैं उसे सुनने का करता हूँ यत्न<br>कि देखता क्या हूँ-<br>सामने मेरे<br>सर्दी में बोरे को ओढ़कर<br>कोई एक अपने<br>हाथ-पैर समेटे<br>काँप रहा, हिल रहा---वह मर जायगा।<br>इतने में वह सिर खोलता है सहसा<br>बाल बिखरते<br>दीखते हैं कान कि<br>फिर मुँह खोलता है, वह कुछ<br>बुदबुदा रहा है,<br>आगे तू बढ़ जा।" किन्तु मैं सुनता ही नहीं हूँ।<br>ध्यान से देखता हूँ--वह कोई परिचित<br>जिसे खूब देखा था, निरखा था कई बार<br>किया उस मुख को। पर पाया नहीं था।<br>अरे हाँ, वह तो...<br>विचार उठते गम्भीर दृढ़ता की सलवटें वैसी ही दब गये,<br>सोचने का साहस सब चला गया है।<br>वह मुख--अरे, वह मुख, वे गाँधी जी!!<br>इस तरह पंगु!!<br>आश्चर्य!! <br>नहीं, नहीं वे जाँच-पड़ताल<br>रूप बदलकर करते हैं चुपचाप।<br>सुराग़रसी-सी कुछ।<br><br>शब्दों में गुरुता।
अँधेरे की स्याही में डूबे हुए देव को सम्मुख पाकर<br>वे कह रहे हैं-- मैं अति दीन हो जाता हूँ पास "दुनिया न कचरे का ढेर कि<br>जिस पर बिजली का झटका<br>दानों को चुगने चढ़ा हुआ कोई भी कुक्कुट कहता है-कोई भी मुरग़ा यदि बाँग दे उठे जोरदार बन जाये मसीहा"भाग जा, हट जा<br>हम वे कह रहे हैं गुज़र गये ज़माने -- मिट्टी के चेहरे<br>लोंदे में किरगीले कण-कण आगे तू बढ़ जा।"<br>गुण हैं, किन्तु मैं देखा किया उस मुख को।<br>जनता के गुणों से ही सम्भव भावी का उद्भव ... गम्भीर दृढ़ता की सलवटें वैसी हीशब्द वे और आगे बढ़ गये,<br>शब्दों में गुरुता।<br><br>जाने क्या कह गये!! मैं अति उद्विग्न!
वे कह रहे हैं--<br>"दुनिया न कचरे एकाएक उठ पड़ा आत्मा का ढेर कि जिस पर<br>पिंजर दानों को चुगने चढ़ा हुआ कोई भी कुक्कुट<br>मूर्ति की ठठरी। कोई भी मुरग़ा<br>नाक पर चश्मा, हाथ में डण्डा, यदि बाँग दे उठे जोरदार<br>कन्धे पर बोरा, बाँह में बच्चा। बन जाये मसीहा"<br>आश्चर्य!! अद्भुत! यह शिशु कैसे!! वे कह रहे हैंमुसकरा उस द्युति-पुरुष ने कहा तब-<br>मिट्टी के लोंदे में किरगीले कण-कण<br>गुण हैं,<br>"मेरे पास चुपचाप सोया हुआ यह था। जनता के गुणों से ही सम्भव<br>भावी का उद्भव ...<br>गम्भीर शब्द वे और आगे बढ़ गयेसँभालना इसको,<br>जाने क्या कह गये!!<br>मैं अति उद्विग्न!<br><br>सुरक्षित रखना"
एकाएक उठ पड़ा आत्मा का पिंजर<br>मूर्ति की ठठरी।<br>नाक मैं कुछ कहने को होता हूँ इतने में वहाँ पर चश्मा, हाथ में डण्डा,<br>कन्धे पर बोराकहीं कोई नहीं है, बाँह में बच्चा।<br>कहीं कोई नहीं है: आश्चर्यऔर ज़्यादा गहरा व और ज़्यादा अकेला अँधेरे का फैलाव!! अद्भुत! यह शिशु कैसे!!<br>मुसकरा उस द्युतिबालक लिपटा है मेरे इस गले से चुपचाप, छाती से कन्धे से चिपका है नन्हा-पुरुष ने कहा तबसा आकाश स्पर्श है सुकुमार प्यार--<br>भरा कोमल किन्तु है भार का गम्भीर अनुभव "मेरे पास चुपचाप सोया हुआ भावी की गन्ध और दूरियाँ अँधेरी आकाशी तारों को साथ लिये हुए मैं चला जा रहा हूँ घुसता ही जाता हूँ फ़ासलों की खोहों तहों में। यह था।<br>सँभालना इसको, सुरक्षित रखना"<br><br>
मैं कुछ कहने को होता हूँ इतने में वहाँ सहसा रो उठा कन्धे पर<br>वह शिशु कहीं कोई नहीं हैअरे, अरे, वह स्वर अतिशय परिचित!! पहले भी कई बार कहीं कोई नहीं है:<br>और ज़्यादा गहरा व और ज़्यादा अकेला<br>तो भी सुना था, अँधेरे उसमें तो स्फोटक क्षोभ का फैलाव!<br>आयेगा, बालक लिपटा गहरी है मेरे इस गले से चुपचापशिकायत,<br>छाती से कन्धे से चिपका है नन्हा-सा आकाश<br>क्रोध भयंकर। स्पर्श है सुकुमार प्यार-भरा कोमल<br>मुझे डर यदि कोई वह स्वर सुन ले किन्तु है भार का गम्भीर अनुभव<br>हम दोनों फिर कहीं नहीं रह सकेंगे। भावी की गन्ध और दूरियाँ अँधेरी<br>आकाशी तारों को साथ लिये हुए मैं<br>पुचकारता हूँ, बहुत दुलारता, चला जा रहा समझाने के लिए तब गाता हूँ<br>गाने, घुसता अधभूली लोरी ही जाता हूँ फ़ासलों होठों से फूटती! मैं चुप करने की खोहों तहों में।<br><br>जितनी भी करता हूँ कोशिश, और-और चीख़ता है क्रोध से लगातार!! गरम-गरम अश्रु टपकते हैं मुझपर।
सहसा रो उठा कन्धे पर वह शिशु<br>अरेकिन्तु, अरे, वह स्वर अतिशय परिचित!!<br>न जाने क्यों ख़ुश बहुत हूँ। पहले भी कई बार कहीं तो भी सुना थाजिसको न मैं जीवन में कर पाया,<br>उसमें तो स्फोटक क्षोभ का आयेगा,<br>गहरी है शिकायत,<br>क्रोध भयंकर।<br>मुझे डर यदि कोई वह स्वर सुन ले<br>हम दोनों फिर कहीं नहीं रह सकेंगे।<br>कर रहा है। मैं पुचकारता शिशु-पीठ थपथपा रहा हूँ, बहुत दुलारताआत्मा है गीली। पैर आगे बढ़ रहे,<br>मन आगे जा रहा। समझाने के लिए तब गाता डूबता हूँ गानेमैं किसी भीतरी सोच में-- हृदय के थाले में रक्त का तालाब,<br>अधभूली लोरी ही होठों रक्त में डूबी हैं द्युतिमान् मणियाँ, रुधिर से फूटती!<br>फूट रहीं लाल-लाल किरणें, मैं चुप करने की जितनी भी करता हूँ कोशिशअनुभव-रक्त में डूबे हैं संकल्प,<br>और-और चीख़ता है क्रोध से लगातार!!<br>ये संकल्प गरमचलते हैं साथ-गरम अश्रु टपकते हैं मुझपर।<br><br>साथ। अँधियारी गलियों में चला जा रहा हूँ।
किन्तु, न जाने क्यों ख़ुश बहुत हूँ।<br>इतने में पाता हूँ अँधेरे में सहसा जिसको न मैं जीवन में कर पाया,<br>कन्धे पर कुछ नहीं!! वह कर रहा है।<br>शिशु मैं शिशु-पीठ थपथपा रहा हूँचला गया जाने कहाँ,<br>आत्मा है गीली।<br>और अब उसके ही स्थान पर पैर आगे बढ़ रहे, मन आगे जा रहा।<br>मात्र हैं सूरज-मुखी-फूल-गुच्छे। डूबता हूँ मैं किसी भीतरी सोच मेंउन स्वर्ण-पुष्पों से प्रकाश-<br>विकीरण हृदय के थाले में रक्त का तालाबकन्धों पर,<br>रक्त में डूबी हैं द्युतिमान् मणियाँसिर पर,<br>रुधिर से फूट रहीं लाल-लाल किरणेंगालों पर, तन पर,<br>अनुभव-रक्त में डूबे हैं संकल्परास्ते पर,<br>और ये संकल्प<br>चलते फैले हैं साथकिरणों के कण-साथ।<br>कण। अँधियारी गलियों में चला जा रहा हूँ।<br><br>भई वाह, यह खूब!!
इतने में पाता गली एक आ गयी और मैं दरवाज़ा खुला हुआ देखता। ज़ीना है अँधेरा। कहीं कोई ढिबरी-सी टिमटिमा रही है! मैं बढ़ रहा हूँ अँधेरे में सहसा<br>कन्धे कन्धों पर कुछ नहींफूलों के लम्बे वे गुच्छे क्या हुए, कहाँ गये? कन्धे क्यों वज़न से दुख रहे सहसा। ओ हो, बन्दूक आ गयी वाह वा...!!<br>वह शिशु<br>वज़नदार रॉयफ़ल चला गया जाने कहाँभई खूब!! खुला हुआ कमरा है साँवली हवा है,<br>और अब उसके ही स्थान पर<br>मात्र झाँकते हैं सूरज-मुखी-फूलखिड़कियों में से दूर अँधेरे में टँके हुए सितारे फैली है बर्फ़ीली साँस-गुच्छे।<br>सी वीरान, उन स्वर्णतितर-पुष्पों से प्रकाश-विकीरण<br>बितर सब फैला है सामान। कन्धों बीच में कोई ज़मीन परपसरा, सिर फैलाये बाँहें, ढह पड़ा आख़िर। मैं उस जन परफैलाता टार्च कि यह क्या-- ख़ून भरे बाल में उलझा है चेहरा, भौहों के बीच में गोली का सूराख़, ख़ून का परदा गालों परफैला, तन होठों परसूखी है कत्थई धारा,<br>रास्ते फूटा है चश्मा नाक है सीधी, ओफ्फो!! एकान्त-प्रिय यह मेरा परिचित व्यक्ति है, वहीं, हाँ, सचाई थी सिर्फ़ एक अहसास वह कलाकार था गलियों के अँधेरे का, हृदय में, भार था पर, फैले हैं किरणों कार्य क्षमता से वंचित व्यक्ति, चलाता था अपना असंग अस्तित्व। सुकुमार मानवीय हृदयों के कणअपने शुचितर विश्व के मात्र थे सपने। स्वप्न व ज्ञान व जीवनानुभव जो--कण।<br>भई वाहहलचल करता था रह-रह दिल में किसी को भी दे नहीं पाया था वह तो। शून्य के जल में डूब गया नीरव हो नहीं पाया उपयोग उसका। किन्तु अचानक झोंक में आकर क्या कर गुज़रा कि सन्देहास्पद समझा गया और मारा गया वह बधिकों के हाथों। मुक्ति का इच्छुक तृषार्त अन्तर मुक्ति के यत्नों के साथ निरन्तर सबका था प्यारा। अपने में द्युतिमान। उनका यों वध हुआ, यह खूबमर गया एक युग, मर गया एक जीवनादर्श!! इतने में मुझको ही चिढ़ाता है कोई। सवाल है-- मैं क्या करता था अब तक, भागता फिरता था सब ओर। (फ़िजूल है इस वक़्त कोसना ख़ुद को) एकदम ज़रूरी-दोस्तों को खोजूँ पाऊँ मैं नये-नये सहचर सकर्मक सत्-चित्-वेदना-भास्कर!!<br><br>
इतने गली एक आ गयी और मैं<br>दरवाज़ा खुला हुआ देखता।<br>ज़ीना है अँधेरा।<br>कहीं कोई ढिबरी-सी टिमटिमा रही है!<br>मैं बढ़ रहा हूँ<br>कन्धों पर फूलों के लम्बे वे गुच्छे<br>क्या हुए, कहाँ गये?<br>कन्धे क्यों वज़न ज़ीने से दुख रहे सहसा।<br>उतरा ओ हो,<br>बन्दूक आ गयी<br>वाह वा...!!<br>वज़नदार रॉयफ़ल<br>भई खूब!!<br>खुला हुआ कमरा है साँवली हवा है,<br>झाँकते हैं खिड़कियों में एकाएक विद्रूप रूपों से दूर अँधेरे में टँके हुए सितारे<br>घिर गया सहसा फैली है बर्फ़ीली साँसपकड़ मशीन-सी वीरान,<br>तितर-बितर सब फैला है सामान।<br>बीच में कोई ज़मीन पर पसराभयानक आकार घेरते हैं मुझको,<br>फैलाये बाँहें, ढह पड़ा आख़िर।<br>मैं उस जन पर फैलाता टार्च कि यह क्याआततायी--<br>ख़ून भरे बाल में उलझा है चेहरा,<br>भौहों सत्ता के बीच में गोली का सूराख़,<br>ख़ून का परदा गालों पर फैला,<br>होठों पर सूखी है कत्थई धारा,<br>फूटा है चश्मा नाक है सीधी,<br>ओफ्फो!! एकान्त-प्रिय यह मेरा<br>परिचित व्यक्ति है, वहीं, हाँ,<br>सचाई थी सिर्फ़ एक अहसास<br>वह कलाकार था<br>गलियों के अँधेरे का, हृदय में, भार था<br>पर, कार्य क्षमता से वंचित व्यक्ति,<br>चलाता था अपना असंग अस्तित्व।<br>सुकुमार मानवीय हृदयों के अपने<br>शुचितर विश्व के मात्र थे सपने।<br>स्वप्न व ज्ञान व जीवनानुभव जो--<br>हलचल करता था रह-रह दिल में<br>किसी को भी दे नहीं पाया था वह तो।<br>शून्य के जल में डूब गया नीरव<br>हो नहीं पाया सम्मुख। उपयोग उसका।<br>किन्तु अचानक झोंक में आकर क्या कर गुज़रा कि<br>सन्देहास्पद समझा गया और<br>मारा गया वह बधिकों के हाथों।<br>मुक्ति का इच्छुक तृषार्त अन्तर<br>मुक्ति के यत्नों के साथ निरन्तर<br>सबका था प्यारा।<br>अपने में द्युतिमान।<br>उनका यों वध हुआ,<br>मर गया एक युग,<br>मर गया एक जीवनादर्श!!<br>इतने में मुझको ही चिढ़ाता है कोई।<br>सवाल है-- मैं क्या करता था अब तक,<br>भागता फिरता था सब ओर।<br>(फ़िजूल है इस वक़्त कोसना ख़ुद को)<br>एकदम ज़रूरी-दोस्तों को खोजूँ<br>पाऊँ मैं नये-नये सहचर<br>सकर्मक सत्-चित्-वेदना-भास्कर!!<br><br>
ज़ीने से उतरा<br>एकाएक विद्रूप रूपों से घिर हृदय धड़ककर रुक गया सहसा<br>, क्या हुआ!! पकड़ मशीनभयानक सनसनी। पकड़कर कॉलर गला दबाया गया। चाँटे से कनपटी टूटी कि अचानक त्वचा उखड़ गयी गाल की पूरी। कान में भर गयी भयानक अनहद-सीनाद की भनभन। आँखों में तैरीं रक्तिम तितलियाँ,<br>चिनगियाँ नीली। भयानक आकार घेरते हैं सामने ऊगते-डूबते धूँधले कुहरिल वर्तुल, जिनका कि चक्रिल केन्द्र ही फैलता जाता उस फैलाव में दीखते मुझकोधँस रहे,<br>गिर रहे बड़े-बड़े टॉवर घुँघराला धूआँ, गेरूआ ज्वाला। हृदय में भगदड़-- सम्मुख दीखा उजाड़ बंजर टीले पर सहसा रो उठा कोई, रो रहा कोई भागता कोई सहायता देने। अन्तर्तत्त्वों का पुनर्प्रबंध और पुनर्व्यवस्था मैं आततायीपुनर्गठन-सत्ता के सम्मुख।<br><br>सा होता जा रहा।
एकाएक हृदय धड़ककर रुक गयादृश्य ही बदला, क्या हुआ!!<br>चित्र बदल गया भयानक सनसनी।<br>जबरन ले जाया गया मैं गहरे पकड़कर कॉलर गला दबाया गया।<br>अँधियारे कमरे के स्याह सिफ़र में। चाँटे टूटे-से कनपटी टूटी कि अचानक<br>स्टूल में बिठाया गया हूँ। त्वचा उखड़ गयी गाल शीश की पूरी।<br>हड्डी जा रही तोड़ी। कान में भर गयी<br>लोहे की कील पर बड़े हथौड़े भयानक अनहदपड़ रहे लगातार। शीश का मोटा अस्थि-नाद की भनभन।<br>कवच ही निकाल डाला। आँखों देखा जा रहा-- मस्तक-यन्त्र में तैरीं रक्तिम तितलियाँकौन विचारों की कौन-सी ऊर्जा, चिनगियाँ नीली।<br>सामने ऊगतेकौन-डूबते धूँधले<br>कुहरिल वर्तुलसी शिरा में कौन-सी धक्-धक्,<br>जिनका कि चक्रिल केन्द्र ही फैलता जाता<br>उस फैलाव कौन-सी रग में दीखते मुझको<br>धँस रहे, गिर रहे बड़ेकौन-बड़े टॉवर <br>सी फुरफुरी, घुँघराला धूआँकहाँ है पश्यत् कैमरा जिसमें तथ्यों के जीवन-दृश्य उतरते, गेरूआ ज्वाला। <br>हृदय में भगदड़कहाँ-कहाँ सच्चे सपनों के आशय कहाँ-<br>कहाँ क्षोभक-स्फोटक सामान! सम्मुख दीखा<br>उजाड़ बंजर टीले भीतर कहीं पर सहसा<br>गड़े हुए गहरे रो उठा कोईतलघर अन्दर छिपे हुए प्रिण्टिंग प्रेस को खोजो। जहाँ कि चुपचाप ख़यालों के परचे छपते रहते हैं, रो रहा कोई<br>बाँटे जाते। भागता कोई सहायता देने।<br>इस संस्था के सेक्रेट्री को खोज निकालो, अन्तर्तत्त्वों शायद, उसका ही नाम हो आस्था, कहाँ है सरगना इस टुकड़ी का पुनर्प्रबंध कहाँ है आत्मा? (और पुनर्व्यवस्था<br>, मैं सुनता हूँ चिढ़ी हुई ऊँची पुनर्गठन-सा होता जा रहा।<br><br>खिझलायी आवाज) स्क्रीनिंग करो मिस्टर गुप्ता, क्रॉस एक्जामिन हिम थॉरोली!!
दृश्य ही बदला, चित्र बदल गया<br>चाबुक-चमकार जबरन ले जाया गया मैं गहरे<br>पीठ पर यद्यपि अँधियारे कमरे के स्याह सिफ़र में।<br>उखड़े चर्म की कत्थई-रक्तिम रेखाएँ उभरीं टूटे-से स्टूल पर, यह आत्मा कुशल बहुत है, देह में बिठाया गया हूँ।<br>शीश की हड्डी जा रेंग रही तोड़ी।<br>लोहे संवेदना की कील पर बड़े हथौड़े<br>गरमीली कड़ुई धारा गहरी पड़ रहे लगातार।<br>झनझन थरथर तारों को उसके, शीश का मोटा अस्थि-कवच ही निकाल डाला।<br>समेटकर वह सब देखा जा रहावेदना--<br>विस्तार करके इकट्ठा मस्तक-यन्त्र में कौन विचारों की कौन-सी ऊर्जा,<br>मेरा मन यह कौनजबरन उसकी छोटी-सी शिरा में कौन-सी धक्-धक्,<br>कड्ढी कौन-सी रग में कौन-सी फुरफुरीगठान बाँधता सख़्त व मज़बूत मानो कि पत्थर। ज़ोर लगाकर, <br>कहाँ उसी गठान को हथेलियों से करता है पश्यत् कैमरा जिसमें<br>तथ्यों के जीवनचूर-दृश्य उतरतेचूर,<br>कहाँ-कहाँ सच्चे सपनों के आशय<br>धूल में बिखरा देता है उसको। कहाँ-कहाँ क्षोभक-स्फोटक सामान!<br>मन यह हटता है देह की हद से भीतर जाता है कहीं पर गड़े हुए गहरे<br>अलग जगत् में। तलघर अन्दर<br>छिपे हुए प्रिण्टिंग प्रेस को खोजो।<br>जहाँ कि चुपचाप ख़यालों के परचे<br>छपते रहते हैंविचित्र क्षण है, बाँटे जाते।<br>इस संस्था के सेक्रेट्री को खोज निकालोसिर्फ़ है जादू,<br>शायद, उसका ही नाम हो आस्था,<br>मात्र मैं बिजली कहाँ है सरगना इस टुकड़ी का<br>यद्यपि खोह में खूँटे बँधा हूँ कहाँ दैत्य है आत्मा?<br>आस-पास (और, मैं सुनता फिर भी बहुत दूर मीलों के पार वहाँ गिरता हूँ चिढ़ी हुई ऊँची<br>चुपचाप पत्र के रूप में खिझलायी आवाज)<br>किसी एक जेब में स्क्रीनिंग करो मिस्टर गुप्ता,<br>वह जेब... क्रॉस एक्जामिन हिम थॉरोली!!<br><br>किसी एक फटे हुए मन की।
चाबुक-चमकार<br>पीठ पर यद्यपि<br>उखड़े चर्म की कत्थई-रक्तिम रेखाएँ उभरीं<br>पर, यह आत्मा कुशल बहुत है,<br>देह में रेंग रही संवेदना की गरमीली कड़ुई धारा गहरी<br>झनझन थरथर तारों को उसके,<br>समेटकर वह सब<br>वेदना-विस्तार करके इकट्ठा<br>मेरा मन यह<br>जबरन उसकी छोटी-सी कड्ढी<br>गठान बाँधता सख़्त व मज़बूत<br>मानो कि पत्थर।<br>ज़ोर लगाकर,<br>उसी गठान को हथेलियों से<br>करता है चूर-चूर,<br>धूल में बिखरा देता है उसको।<br>मन यह हटता है देह की हद से<br>जाता है कहीं पर अलग जगत् में।<br>विचित्र क्षण है,<br>सिर्फ़ है जादू,<br>मात्र मैं बिजली<br>यद्यपि खोह में खूँटे बँधा हूँ<br>दैत्य है आस-पास<br>फिर भी बहुत दूर मीलों के पार वहाँ<br>गिरता हूँ चुपचाप पत्र के रूप में<br>किसी एक जेब में<br>वह जेब...<br>किसी एक फटे हुए मन की।<br><br> समस्वर, समताल,<br>सहानुभूति की सनसनी कोमल!!<br>हम कहाँ नहीं हैं<br>सभी जगह हम।<br>निजता हमारी?<br>भीतर-भीतर बिजली के जीवित<br>तारों के जाले,<br>ज्वलन्त तारों की भीषण गुत्थी,<br>बाहर-बाहर धूल-सी भूरी<br>ज़मीन की पपड़ी<br>अग्नि को लेकर, मस्तक हिमवत्,<br>उग्र प्रभंजन लेकर, उर यह<br>बिलकुल निश्चल।<br>भीषण शक्ति को धारण करके<br>आत्मा का पोशाक दीन व मैला।<br>विचित्र रूपों को धारण करके<br>चलता है जीवन, लक्ष्यों के पथ पर।<br/poem>
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