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{{KKRachna
|रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध
|संग्रह=चांद का मुँह टेढ़ा है / गजानन माधव मुक्तिबोध
}}
[[Category:लम्बी कविता]]
|सारणी=अंधेरे में / गजानन माधव मुक्तिबोध
}}
<poem>
सीन बदलता है
सुनसान चौराहा साँवला फैला,
बीच में वीरान गेरूआ घण्टाघर,
ऊपर कत्थई बुज़र्ग गुम्बद,
साँवली हवाओं में काल टहलता है।
रात में पीले हैं चार घड़ी-चेहरे,
मिनिट के काँटों की चार अलग गतियाँ,
चार अलग कोण,
कि चार अलग संकेत
(मनस् में गतिमान् चार अलग मतियाँ)
खम्भों पर बिजली की गरदनें लटकीं,
शर्म से जलते हुए बल्बों के आस-पास
बेचैन ख़यालों के पंखों के कीड़े
उड़ते हैं गोल-गोल
मचल-मचलकर।
घण्टाघर तले ही
पंखों के टुकड़े व तिनके।
गुम्बद-विवर में बैठे हुए बूढ़े
असम्भव पक्षी
बहुत तेज़ नज़रों से देखते हैं सब ओर,
मानो कि इरादे
भयानक चमकते।
सुनसान चौराहा
बिखरी हैं गतियाँ, बिखरी है रफ़्तार,
गश्त में घूमती है कोई दुष्ट इच्छा।
भयानक सिपाही जाने किस थकी हुई झोंक में
अँधेरे में सुलगाता सिगरेट अचानक
ताँबे से चेहरे की ऐंठ झलकती।
पथरीली सलवट
दियासलाई की पल-भर लौ में
साँप-सी लगती।
पर उसके चेहरे का रंग बदलता है हर बार,
मानो अनपेक्षित कहीं न कुछ हो...
वह ताक रहा है--
संगीन नोंकों पर टिका हुआ
साँवला बन्दूक़-जत्था
गोल त्रिकोण एक बनाये खड़ा जो
चौक के बीच में!!
एक ओर
टैंकों का दस्ता भी खड़े-खड़े ऊँघता,
परन्तु अड़ा है!!
इतने में पाता गली एक आ गयी और मैं दरवाज़ा खुला हुआ देखता। ज़ीना है अँधेरा। कहीं कोई ढिबरी-सी टिमटिमा रही है! मैं बढ़ रहा हूँ अँधेरे में सहसा<br>कन्धे कन्धों पर कुछ नहींफूलों के लम्बे वे गुच्छे क्या हुए, कहाँ गये? कन्धे क्यों वज़न से दुख रहे सहसा। ओ हो, बन्दूक आ गयी वाह वा...!!<br>वह शिशु<br>वज़नदार रॉयफ़ल चला गया जाने कहाँभई खूब!! खुला हुआ कमरा है साँवली हवा है,<br>और अब उसके ही स्थान पर<br>मात्र झाँकते हैं सूरज-मुखी-फूलखिड़कियों में से दूर अँधेरे में टँके हुए सितारे फैली है बर्फ़ीली साँस-गुच्छे।<br>सी वीरान, उन स्वर्णतितर-पुष्पों से प्रकाश-विकीरण<br>बितर सब फैला है सामान। कन्धों बीच में कोई ज़मीन परपसरा, सिर फैलाये बाँहें, ढह पड़ा आख़िर। मैं उस जन परफैलाता टार्च कि यह क्या-- ख़ून भरे बाल में उलझा है चेहरा, भौहों के बीच में गोली का सूराख़, ख़ून का परदा गालों परफैला, तन होठों परसूखी है कत्थई धारा,<br>रास्ते फूटा है चश्मा नाक है सीधी, ओफ्फो!! एकान्त-प्रिय यह मेरा परिचित व्यक्ति है, वहीं, हाँ, सचाई थी सिर्फ़ एक अहसास वह कलाकार था गलियों के अँधेरे का, हृदय में, भार था पर, फैले हैं किरणों कार्य क्षमता से वंचित व्यक्ति, चलाता था अपना असंग अस्तित्व। सुकुमार मानवीय हृदयों के कणअपने शुचितर विश्व के मात्र थे सपने। स्वप्न व ज्ञान व जीवनानुभव जो--कण।<br>भई वाहहलचल करता था रह-रह दिल में किसी को भी दे नहीं पाया था वह तो। शून्य के जल में डूब गया नीरव हो नहीं पाया उपयोग उसका। किन्तु अचानक झोंक में आकर क्या कर गुज़रा कि सन्देहास्पद समझा गया और मारा गया वह बधिकों के हाथों। मुक्ति का इच्छुक तृषार्त अन्तर मुक्ति के यत्नों के साथ निरन्तर सबका था प्यारा। अपने में द्युतिमान। उनका यों वध हुआ, यह खूबमर गया एक युग, मर गया एक जीवनादर्श!! इतने में मुझको ही चिढ़ाता है कोई। सवाल है-- मैं क्या करता था अब तक, भागता फिरता था सब ओर। (फ़िजूल है इस वक़्त कोसना ख़ुद को) एकदम ज़रूरी-दोस्तों को खोजूँ पाऊँ मैं नये-नये सहचर सकर्मक सत्-चित्-वेदना-भास्कर!!<br><br>