{{KKRachna
|रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध
|संग्रह=चांद का मुँह टेढ़ा है / गजानन माधव मुक्तिबोध
}}
[[Category:लम्बी कविता]]
|सारणी=अंधेरे में / गजानन माधव मुक्तिबोध
}}
<poem>
एकाएक हृदय धड़ककर रुक गया, क्या हुआ !!
नगर से भयानक धुआँ उठ रहा है,
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।
सड़कों पर मरा हुआ फैला है सुनसान,
हवाओं में अदृश्य ज्वाला की गरमी
गरमी का आवेग।
साथ-साथ घूमते हैं, साथ-साथ रहते हैं,
साथ-साथ सोते हैं, खाते हैं, पीते हैं,
जन-मन उद्देश्य !!
पथरीले चेहरों के ख़ाकी ये कसे ड्रेस
घूमते हैं यंत्रवत्,
वे पहचाने-से लगते हैं वाक़ई
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी !!
एकाएक हृदय धड़ककर रुक गयासब चुप, क्या हुआ !!<br>साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक् नगर चिन्तक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैं उनके ख़याल से भयानक धुआँ उठ रहा यह सब गप हैमात्र किंवदन्ती। रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्ध ये सब लोग नपुंसक भोग-शिरा-जालों में उलझे। प्रश्न की उथली-सी पहचान राह से अनजान वाक् रुदन्ती। चढ़ गया उर पर कहीं कोई निर्दयी,<br>कहीं आग लग गयीगई, कहीं गोली चल गयी।<br>गई। सड़कों पर मरा हुआ फैला है सुनसान,<br>हवाओं भव्याकार भवनों के विवरों में अदृश्य ज्वाला की गरमी<br>छिप गये गरमी का आवेग।<br>समाचारपत्रों के पतियों के मुख स्थल। साथ-साथ घूमते हैं, साथ-साथ रहते हैंगढ़े जाते संवाद,<br>साथ-साथ सोते हैंगढ़ी जाती समीक्षा, खाते हैं, पीते हैं,<br> गढ़ी जाती टिप्पणी जन-मन उद्देश्य !!<br>-उर-शूर। पथरीले बौद्धिक वर्ग है क्रीतदास, किराये के विचारों का उद्भास। बड़े-बड़े चेहरों पर स्याहियाँ पुत गयीं। नपुंसक श्रद्धा सड़क के ख़ाकी ये कसे ड्रेस<br>नीचे की गटर में छिप गयी, घूमते हैं यंत्रवत्कहीं आग लग गयी,<br>कहीं गोली चल गयी। वे पहचानेधुएँ के ज़हरीले मेघों के नीचे ही हर बार द्रुत निज-विश्लेष-गतियाँ, एक स्पिलट सेकेण्ड में शत साक्षात्कार। टूटते हैं धोखों से लगते भरे हुए सपने। रक्त में बहती हैं वाक़ई<br>शान की किरनें विश्व की मूर्ति में आत्मा ही ढल गयी, कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी !!<br><br>गयी।
सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक्<br>राह के पत्थर-ढोकों के अन्दर चिन्तक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैं<br>पहाड़ों के झरने उनके ख़याल से यह सब गप है<br>तड़पने लग गये। मात्र किंवदन्ती।<br>मिट्टी के लोंदे के भीतर रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्ध ये सब लोग<br>भक्ति की अग्नि का उद्रेक नपुंसक भोग-शिरा-जालों भड़कने लग गया। धूल के कण में उलझे।<br> प्रश्न की उथली-सी पहचान<br>अनहद नाद का कम्पन ख़तरनाक !! राह मकानों के छत से अनजान<br> वाक् रुदन्ती।<br>गाडर कूद पड़े धम से। चढ़ गया उर पर कहीं कोई निर्दयी,<br>घूम उठे खम्भे कहीं आग लग गई, कहीं गोली भयानक वेग से चल गई।<br>पड़े हवा में। दादा का सोंटा भी करता दाँव-पेंच भव्याकार भवनों के विवरों नाचता है हवा में छिप गये<br>समाचारपत्रों के पतियों के मुख स्थल।<br>गगन में नाच रही कक्का की लाठी। गढ़े जाते संवादयहाँ तक कि बच्चे की पेंपें भी उड़तीं,<br>गढ़ी जाती समीक्षा, <br>तेज़ी से लहराती घूमती हैं हवा में गढ़ी जाती टिप्पणी जनसलेट पट्टी। एक-मनएक वस्तु या एक-उरएक प्राणाग्नि-शूर।<br>बौद्धिक वर्ग बम है क्रीतदास,<br>किराये के विचारों का उद्भास।<br>बड़े-बड़े चेहरों पर स्याहियाँ पुत गयीं।<br>नपुंसक श्रद्धा<br>सड़क के नीचे की गटर में छिप गयीये परमास्त्र हैं,<br>कहीं आग लग गयीप्रक्षेपास्त्र हैं, कहीं गोली चल गयी।<br>यम हैं। धुएँ के ज़हरीले मेघों के नीचे ही हर बार<br>द्रुत निज-विश्लेष-गतियाँ,<br>एक स्पिलट सेकेण्ड शून्याकाश में शत साक्षात्कार।<br>टूटते हैं धोखों से भरे होते हुए सपने।<br>वे रक्त में बहती हैं शान की किरनें<br>विश्व की मूर्ति में आत्मा अरे, अरि पर ही ढल गयीटूट पड़े अनिवार। यह कथा नहीं है,<br>यह सब सच है, भई !! कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।<br><br>गयी !!
राह के पत्थरकिसी एक बलवान् तन-ढोकों के अन्दर<br>श्याम लुहार ने बनाया पहाड़ों के झरने<br>कण्डों का वर्तुल ज्वलन्त मण्डल। तड़पने लग गये।<br>मिट्टी के लोंदे के भीतर<br>भक्ति स्वर्णिम कमलों की अग्नि का उद्रेक<br>पाँखुरी-जैसी ही भड़कने लग गया।<br>ज्वालाएँ उठती हैं उससे, धूल के कण और उस गोल-गोल ज्वलन्त रेखा में <br>रक्खा अनहद नाद लोहे का कम्पन<br>चक्का ख़तरनाक !!<br>चिनगियाँ स्वर्णिम नीली व लाल मकानों फूलों-सी खिलतीं।कुछ बलवान् जन साँवले मुख के छत से <br>गाडर कूद पड़े धम से।<br>चढ़ा रहे लकड़ी के चक्के पर जबरन घूम उठे खम्भे<br>भयानक वेग से चल पड़े हवा में।<br>दादा का सोंटा भी करता दाँवलाल-पेंच<br>नाचता है हवा में<br>गगन में नाच रही कक्का लाल लोहे की लाठी।<br>यहाँ तक कि बच्चे की पेंपें भी उड़तीं,<br>तेज़ी से लहराती घूमती हैं हवा में<br>सलेट पट्टी।<br>एकगोल-एक वस्तु या एक-एक प्राणाग्नि-बम है,<br>गोल पट्टी ये परमास्त्र हैंघन मार घन मार, प्रक्षेपास्त्र हैं, यम हैं।<br>शून्याकाश में से होते हुए वे<br>उसी प्रकार अब अरे, अरि आत्मा के चक्के पर ही टूट पड़े अनिवार।<br>चढ़ाया जा रहा यह कथा नहीं है, यह सब सच है, भई संकल्प शक्ति के लोहे का मज़बूत ज्वलन्त टायर !!<br>अब युग बदल गया है वाक़ई, कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी !!<br><br>गयी।
किसी एक बलवान् तनगेरुआ मौसम उड़ते हैं अंगार, जंगल जल रहे ज़िन्दगी के अब जिनके कि ज्वलन्त-श्याम लुहार ने बनाया<br>प्रकाशित भीषण कण्डों का वर्तुल फूलों में बहतीं वेदना नदियाँ जिनके कि जल में सचेत होकर सैकड़ों सदियाँ, ज्वलन्त मण्डल।<br>अपने स्वर्णिम कमलों की पाँखुरी-जैसी ही<br>बिम्ब फेंकतीं !! ज्वालाएँ उठती वेदना नदियाँ जिनमें कि डूबे हैं उससेयुगानुयुग से मानो कि आँसू पिताओं की चिन्ता का उद्विग्न रंग भी,<br>और उस गोलविवेक-गोल ज्वलन्त रेखा में रक्खा<br>पीड़ा की गहराई बेचैन, लोहे डूबा है जिनमें श्रमिक का चक्का<br>सन्ताप। चिनगियाँ स्वर्णिम नीली व लाल<br>वह जल पीकर फूलोंमेरे युवकों में होता जाता व्यक्तित्वान्तर, विभिन्न क्षेत्रों में कई तरह से करते हैं संगर, मानो कि ज्वाला-सी खिलतीं।कुछ बलवान् जन साँवले मुख के<br>पँखरियों से घिरे हुए वे सब चढ़ा रहे लकड़ी अग्नि के चक्के पर जबरन<br>लालशत-लाल लोहे की गोलदल-गोल पट्टी<br>कोष में बैठे !! घन मार घन मारद्रुत-वेग बहती हैं शक्तियाँ निश्चयी। कहीं आग लग गयी,<br>कहीं गोली चल गयी। उसी प्रकार अब<br>::x x x एकाएक फिर स्वप्न भंग बिखर गये चित्र कि मैं फिर अकेला। मस्तिष्क हृदय में छेद पड़ गये हैं। आत्मा के चक्के पर चढ़ाया जा रहा<br>उन दुखते हुए रन्ध्रों में गहरा संकल्प शक्ति के लोहे प्रदीप्त ज्योति का मज़बूत<br>रस बस गया है। ज्वलन्त टायर मैं उन सपनों का खोजता हूँ आशय, अर्थों की वेदना घिरती है मन में। अजीब झमेला। घूमता है मन उन अर्थों के घावों के आस-पास आत्मा में चमकीली प्यास भर गयी है। जग भर दीखती हैं सुनहली तस्वीरें मुझको मानो कि कल रात किसी अनपेक्षित क्षण में ही सहसा प्रेम कर लिया हो जीवन भर के लिए !!<br>अब युग बदल गया मानो कि उस क्षण अतिशय मृदु किन्ही बाँहों ने आकर कस लिया था इस भाँति कि मुझको उस स्वप्न-स्पर्श की, चुम्बन की याद आ रही है वाक़ई,<br>कहीं आग लग गयीयाद आ रही है !! अज्ञात प्रणयिनी कौन थी, कहीं गोली चल गयी।<br><br>कौन थी?
गेरुआ मौसम उड़ते हैं अंगार,<br>जंगल जल रहे ज़िन्दगी के अब<br>जिनके कि ज्वलन्त-प्रकाशित भीषण<br>फूलों कमरे में बहतीं वेदना नदियाँ<br>जिनके कि जल में<br>सचेत होकर सैकड़ों सदियाँ, ज्वलन्त अपने<br>बिम्ब फेंकतीं !!<br>वेदना नदियाँ<br>जिनमें कि डूबे हैं युगानुयुग से<br>मानो कि आँसू<br>पिताओं सुबह की चिन्ता का उद्विग्न रंग भी,<br>विवेक-पीड़ा की गहराई बेचैन,<br>डूबा धूप आ गयी है जिनमें श्रमिक का सन्ताप।<br>वह जल पीकर<br>मेरे युवकों में होता जाता व्यक्तित्वान्तर,<br>विभिन्न क्षेत्रों गैलरी में कई तरह से करते हैं संगर,<br>फैला है सुनहला रवि छोर मानो कि ज्वाला-पँखरियों से घिरे हुए वे सब<br>क्या कोई प्रेमिका सचमुच मिलेगी? अग्नि के शत-दल-कोष में बैठे हाय !!<br>द्रुत-वेग बहती हैं शक्तियाँ निश्चयी।<br>कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी।<br>::x x x<br>एकाएक फिर स्वप्न भंग<br>बिखर गये चित्र कि मैं फिर अकेला।<br>मस्तिष्क हृदय में छेद पड़ गये हैं।<br>पर उन दुखते हुए रन्ध्रों में गहरा<br>प्रदीप्त ज्योति का रस बस गया है।<br>मैं उन सपनों का खोजता हूँ आशय,<br>अर्थों यह वेदना स्नेह की वेदना घिरती है मन में।<br>गहरी अजीब झमेला।<br>घूमता है मन उन अर्थों के घावों के आस-पास<br>आत्मा में चमकीली प्यास भर जाग गयी है।<br>जग भर दीखती हैं सुनहली तस्वीरें मुझको<br>मानो कि कल रात किसी अनपेक्षित क्षण में ही सहसा<br>प्रेम क्यों कर लिया हो<br>जीवन भर के लिए !!<br>मानो कि उस क्षण<br>अतिशय मृदु किन्ही बाँहों ने आकर<br>कस लिया था इस भाँति कि मुझको<br>उस स्वप्न-स्पर्श की, चुम्बन की याद आ रही है,<br>याद आ रही है !!<br>अज्ञात प्रणयिनी कौन थी, कौन थी?<br><br>
कमरे में सुबह की धूप आ गयी हैसब ओर विद्युत्तरंगीय हलचल चुम्बकीय आकर्षण। प्रत्येक वस्तु का निज-निज आलोक,<br>गैलरी में फैला है सुनहला रवि छोर<br>मानो कि अलग-अलग फूलों के रंगीन क्या कोई प्रेमिका सचमुच मिलेगी?<br>अलग-अलग वातावरण हैं बेमाप, हाय ! यह वेदना स्नेह प्रत्येक अर्थ की गहरी<br>छाया में अन्य अर्थ जाग गयी क्यों कर?<br><br>झलकता साफ़-साफ़ ! डेस्क पर रखे हुए महान् ग्रन्थों के लेखक मेरी इन मानसिक क्रियाओं के बन गये प्रेक्षक, मेरे इस कमरे में आकाश उतरा, मन यह अन्तरिक्ष-वायु में सिहरा।
सब ओर विद्युत्तरंगीय हलचल<br>चुम्बकीय आकर्षण।<br>प्रत्येक वस्तु का निज-निज आलोकउठता हूँ,<br>जाता हूँ, गैलरी में खड़ा हूँ। मानो कि अलग-अलग फूलों एकाएक वह व्यक्ति आँखों के रंगीन<br>सामने अलग-अलग वातावरण हैं बेमापगलियों में,<br>प्रत्येक अर्थ सड़कों पर, लोगों की छाया भीड़ में अन्य अर्थ<br>झलकता साफ़-साफ़ !<br>चला जा रहा है। डेस्क पर रखे हुए महान् ग्रन्थों के लेखक<br>वही जन जिसे मैंने देखा था गुहा में। मेरी इन मानसिक क्रियाओं के बन गये प्रेक्षकधड़कता है दिल कि पुकारने को खुलता है मुँह कि अकस्मात्-- वह दिखा,<br>वह दिखा मेरे इस कमरे वह फिर खो गया किसी जन यूथ में आकाश उतरा,<br>... मन उठी हुई बाँह यह अन्तरिक्ष-वायु में सिहरा।<br><br>उठी रह गयी !!
उठता हूँ, जाता हूँ, गैलरी में खड़ा हूँ।<br>एकाएक वह व्यक्ति<br>आँखों के सामने<br>गलियों में, सड़कों पर, लोगों की भीड़ में<br>चला जा रहा है।<br>वही जन जिसे मैंने देखा था गुहा में।<br>धड़कता है दिल<br>कि पुकारने को खुलता है मुँह<br>कि अकस्मात्--<br>वह दिखा, वह दिखा<br>वह फिर खो गया किसी जन यूथ में...<br>उठी हुई बाँह यह उठी रह गयी !!<br><br> अनखोजी निज-समृद्धि का वह परम उत्कर्ष,<br>परम अभिव्यक्ति<br>मैं उसका शिष्य हूँ<br>वह मेरी गुरू है,<br>गुरू है !!<br>वह मेरे पास कभी बैठा ही नहीं था,<br>वह मेरे पास कभी आया ही नहीं था,<br>तिलस्मी खोह में देखा था एक बार,<br>आख़िरी बार ही।<br>पर, वह जगत् की गलियों में घूमता है प्रतिपल<br>वह फटेहाल रूप।<br>तडित्तरंगीय वही गतिमयता,<br>अत्यन्त उद्विग्न ज्ञान-तनाव वह<br>सकर्मक प्रेम की वह अतिशयता<br>वही फटेहाल रूप !!<br>परम अभिव्यक्ति<br>लगातार घूमती है जग में<br>पता नहीं जाने कहाँ, जाने कहाँ<br>वह है।<br>इसीलिए मैं हर गली में <br> और हर सड़क पर<br>झाँक-झाँक देखता हूँ हर एक चेहरा,<br>प्रत्येक गतिविधि<br>प्रत्येक चरित्र,<br>व हर एक आत्मा का इतिहास,<br>हर एक देश व राजनैतिक परिस्थिति<br>प्रत्येक मानवीय स्वानुभूत आदर्श<br>विवेक-प्रक्रिया, क्रियागत परिणति !!<br>खोजता हूँ पठार...पहाड़...समुन्दर<br>जहाँ मिल सके मुझे<br>मेरी वह खोयी हुई<br>परम अभिव्यक्ति अनिवार<br>
आत्म-सम्भवा।
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