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इस आश्चर्यमें आश्चर्य में पड़ी गोपीका गोपी का मुख तो देखो । (यह सोच रही है-)`मैं तो दही मथकर मथ कर मक्खन वैसे ही छोड़ गयी थी, उस समय से लौटनेमें लौटने में कुछ देर अवश्य मैंने कर दी ।' (अपने मटकेके मटके के पास जाकर उसे खाली देखकर सोचती है-)`मैंने कहीं अन्यत्र तो (माखन) नहीं रख दिया ?' यह गोपी अपने मनमें मन में चकित हो रही है, बार-बार घरमें घर में ढूँढ़ती है । इसके मनको मन को तो गोपाल ने हर लिया है (इसलिये ठीक सोच पाती नहीं )। घरके बर्तनोंको घर के बर्तनों को बार-बार देखतीहै देखती है । सूरदासजी सूरदास जी कहते हैं-यह समझते ही कि यह मेरे श्यामका श्याम का (मधुर) खेल है; गोपी प्रेममें प्रेम में मग्न हो गयी ।