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|रचनाकार=रामकुमार वर्मा
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<poem>
मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूँ,
 
 
जानता हूँ इस जगत में फूल की है आयु कितनी,
 
और यौवन की उभरती साँस में है वायु कितनी,
 
इसलिए आकाश का विस्तार सारा चाहता हूँ,
 
मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूँ,
 
 
प्रश्न-चिह्नों में उठी हैं भाग्य सागर की हिलोरें,
 
आँसुओं से रहित होंगी क्या नयन की नामित कोरें,
 
जो तुम्हें कर दे द्रवित वह अश्रु धारा चाहता हूँ,
 
मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूँ,
 
 
जोड़ कर कण-कण कृपण आकाश ने तारे सजाये,
 
जो कि उज्ज्वल हैं सही पर क्या किसी के काम आये?
 
प्राण! मैं तो मार्गदर्शक एक तारा चाहता हूँ,
 
मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूँ,
 
 
यह उठा कैसा प्रभंजन जुड़ गयी जैसे दिशायें,
 
एक तरणी एक नाविक और कितनी आपदाएँ,
 
क्या कहूँ मँझधार में ही मैं किनारा चाहता हूँ,
 मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूँ,</poem>