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राग नटनारायनी
देखि री देखि हरि बिलखात ।<br>अजिर लोटत राखि जसुमति, धूरि-धूसर गात ॥<br>मूँदि मुख छिन सुसुकि रोवत, छिनक मौन रहात ।<br>कमल मधि अलि उड़त सकुचत, पच्छ दल-आघात ॥<br>चपल दृग, पल भरे अँसुआ, कछुक ढरि-ढरि जात ।<br>अलप जल पर सीप द्वै लखि, मीन मनु अकुलात ॥<br>लकुट कैं डर ताकि तोहि तब पीत पट लपटात ।<br>सूर-प्रभु पर वारियै ज्यौं, भलेहिं माखन खात ॥<br><br>
भावार्थ :--(गोपी कह रही है -) `देखो सखी, देखो तो श्यामसुन्दर क्रन्दन कर रहे हैं। यशोदा जी इन्हें आँगन में लोटने से बचाओ । (देखो न ) इनका शरीर धूल से मटमेला हो रहा है कभी कुछ क्षण मुख ढँककर सिसकारी लेकर रोते हैं, कभी क्षण भर चुप हो जाते हैं । इनकी ऐसी शोभा हो रही है मानो कमल पर से भौंरे उड़ना चाहते हों किंतु पंख की चोट कहीं दलों को न लगे, इससे संकुचित हो रहे हैं । नेत्र चञ्चल हैं, पलकें आँसू से भरी हैं, जिनकी कुछ बूँदे बार-बार ढुलक पड़ती हैं मानो थोड़े जल के ऊपर दो सीप देखकर मछलियाँ व्याकुल हो रही हैं । जब छड़ी के भय से तुम्हारी ओर देखते हैं, तब पीताम्बर में लिपट जाते (संकुचित हो जाते) हैं ।' सूरदास जी कहते -`मेरे इन स्वामी पर तो प्राण न्योछावर कर देना चाहिये । ये (मक्खन खाते हैं तो भले ही खायँ (इन पर रोष करना तो अनुचित ही है ) ।'